Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 अरहन्त के केवलज्ञानदशा होती है, जो केवलज्ञानदशा है, वह चिद्विवर्तन की वास्तविक ग्रन्थी है। जो अपूर्ण ज्ञान है, सो स्वरूप नहीं है, केवलज्ञान होने पर एक ही पर्याय में लोकालोक का पूर्ण ज्ञान समाविष्ट हो जाता है, मति-श्रुत पर्याय में भी अनेकानेक भावों का निर्णय समाविष्ट हो जाता है। यद्यपि पर्याय स्वयं एक समय की है, तथापि उस एक समय में सर्वज्ञ के परिपूर्ण द्रव्य-गुण-पर्याय को अपने ज्ञान में समाविष्ट कर लेती है। सम्पूर्ण अरहन्त का निर्णय एक समय में कर लेने से पर्याय, चैतन्य की गाँठ है। __अरहन्त की पर्याय सर्वतः सर्वथा शुद्ध है। यह शुद्धपर्याय जब ख्याल में ली, तब उस समय निज के वैसी पर्याय वर्तमान में नहीं है, तथापि यह निर्णय होता है कि मेरी अवस्था का स्वरूप अनन्त ज्ञानशक्तिरूप सम्पूर्ण है; रागादिक मेरी पर्याय का मूलस्वरूप नहीं है। इस प्रकार अरहन्त के लक्ष्य से द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप अपने आत्मा को शुभ विकल्प के द्वारा जाना है। इस प्रकार द्रव्यगण-पर्याय के स्वरूप को एक ही साथ जान लेनेवाला जीव बाद में क्या करता है और उसका मोह कब नष्ट होता है-यह अब कहते हैं।
"अब इस प्रकार.............अवश्यमेव प्रलय को प्राप्त होता है ?"
(-गाथा 80 की टीका) द्रव्य-गुण-पर्याय का यथार्थ स्वरूप जान लेने पर, जीव त्रैकालिक द्रव्य को एककाल में निश्चित कर लेता है। आत्मा के त्रैकालिक होने पर भी, जीव उसके त्रैकालिक स्वरूप को एक ही काल में समझ लेता है। अरहन्त को द्रव्य-गुण-पर्याय से जान लेने पर, अपने में क्या फल प्रगट
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