Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[119 सच्ची दया और हिंसा :
मोह का नाश करने के लिए न तो परजीवों की दया-पालन करने को कहा है और न पूजा, भक्ति करने का ही आदेश दिया है, किन्तु यह कहा है कि अरहन्त का और अपने आत्मा का निर्णय करना ही मोहक्षय का उपाय है। पहले आत्मा की प्रतीति न होने से अपनी अनन्त हिंसा करता था और अब यथार्थ प्रतीति करने से अपनी सच्ची दया प्रगट हो गयी है और सब हिंसा का महापाप दूर हो गया है।
उपसंहार पुरुषार्थ की प्रतीति :___ पहले हार के दृष्टान्त से द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप बताया है। जैसे हार में मोती एक के बाद दूसरा क्रमशः होता है; उसी प्रकार द्रव्य में एक के बाद दूसरी पर्याय होती है। जहाँ सर्वज्ञ का निर्णय किया तो वहाँ त्रिकाल की क्रमबद्धपर्याय का निर्णय हो जाता है। केवलज्ञानगम्य त्रिकाल अवस्था में एक के बाद दूसरी अवस्थायें होती ही रहती हैं। वास्तव में तो मेरे स्वभाव में जो क्रमबद्ध अवस्था है, उसी को केवलज्ञानी ने जाना है। (इस अभिप्राय के बल का झुकाव स्वभाव की ओर है), ऐसा जिसने निर्णय किया है, उसी ने अपने स्वभाव की प्रतीति की है। जिसे स्वभाव की प्रतीति होती है, उसे अपनी पर्याय की शङ्का नहीं होती, क्योंकि वह जानता है कि अवस्था तो मेरे स्वभाव में से क्रमबद्ध आती है, कोई परद्रव्य मेरी अवस्था को बिगाड़ने में समर्थ नहीं है। ज्ञानी को ऐसी शङ्का कदापि नहीं होती कि बहुत से कर्मों का तीव्र उदय आया तो मैं गिर जाऊँगा।' जहाँ पीछे गिरने की शङ्का है, वहाँ
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