Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
82]
[सम्यग्दर्शन : भाग-1 सबसे पहले अपने शुद्धस्वभाव को पहचानना चाहिए। इस गाथा में आत्मा के शुद्धस्वभाव को पहचानने की रीति बतायी गयी है।
अरहन्त का स्वरूप सर्व प्रकार स्पष्ट है। जैसी वह दशा है, वैसी ही इस आत्मा की दशा होनी चाहिए। ऐसा निश्चय किया अर्थात् यह जान लिया कि जो अरहन्तदशा में नहीं होते, वे भाव मेरे स्वरूप में नहीं हैं और इस प्रकार विकारभाव और स्वभाव को भिन्न-भिन्न जान लिया; इस प्रकार जिसने अरहन्त का ठीक निर्णय कर लिया और यह प्रतीति कर ली कि मेरा आत्मा भी वैसा ही है, उसका दर्शनमोह नष्ट होकर उसे क्षायिकसम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। __ध्यान रहे कि यह अपूर्व बात है, इसमें मात्र अरहन्त की बात नहीं है, किन्तु अपने आत्मा को एकमेक करने की बात है। अरहन्त का ज्ञान करनेवाला तो यह आत्मा है। अरहन्त की प्रतीति करनेवाला अपना ज्ञानस्वभाव है। जो अपने ज्ञानस्वभाव के द्वारा अरहन्त की प्रतीति करता है, उसे अपने आत्मा की प्रतीति अवश्य हो जाती है और फिर अपने स्वरूप की ओर एकाग्रता करते-करते केवलज्ञान हो जाता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन से प्रारम्भ करके केवलज्ञान प्राप्त करने तक का अप्रतिहत उपाय बता दिया गया है। 82वीं गाथा में कहा गया है कि समस्त तीर्थङ्कर इसी विधि से कर्म का क्षय करके निर्वाण को प्राप्त हुए हैं और यही उपदेश दिया है। जैसे अपना मुँह देखने के लिए सामने स्वच्छ दर्पण रक्खा जाता है; उसी प्रकार यहाँ आत्मस्वरूप को देखने के लिए अरहन्त भगवान को आदर्शरूप में (आदर्श का अर्थ दर्पण है) अपने समक्ष रखा है। तीर्थङ्करों का पुरुषार्थ अप्रतिहत होता है, उनका सम्यक्त्व भी
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.