Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[85 स्वभाव को प्रतीति में लेने पर, स्वभाव की ओर पर्याय एकाग्र हो जाती है, अर्थात् मोह को पर्याय का आधार नहीं रहता और इस प्रकार निराधार हुआ मोह अवश्य क्षय को प्राप्त होता है।
सर्व प्रथम अरहन्त का लक्ष्य होता तो है, किन्तु बाद में अरहन्त के लक्ष्य से भी हटकर, स्वभाव की श्रद्धा करने पर सम्यग्दर्शन- दशा प्रगट होती है। सर्वज्ञ अरहन्त भी आत्मा हैं और मैं भी आत्मा हूँ - ऐसी प्रतीति करने के बाद अपनी पर्याय में सर्वज्ञ से जितनी अपूर्णता है, उसे दूर करने के लिए स्वभाव में एकाग्रता का प्रयत्न करता है।
अरहन्त को जानने पर जगत के समस्त आत्माओं का निर्णय हो गया कि जगत् के जीव अपनी-अपनी पर्याय से ही सखीदु:खी हैं। अरहन्त प्रभु अपनी पूर्ण पर्याय से ही स्वयं सुखी हैं; इसलिए सुख के लिए उन्हें अन्न, जल, वस्त्र इत्यादि किसी पदार्थ की आवश्यकता नहीं होती और जगत् के जो जीव दुःखी हैं, वे अपनी पर्याय के दोष से ही दु:खी हैं। पर्याय में मात्र रागदशा जितना ही अपने को मान बैठे हैं और सम्पूर्ण स्वभाव को भल गये हैं; इसलिए राग का ही संवेदन करके दुःखी होते हैं किन्तु किसी निमित्त के कारण से अथवा कर्मों के कारण दुःखी नहीं है और न अन्न, वस्त्र इत्यादि के न मिलने से दु:खी हैं; दुःख का कारण अपनी पर्याय है और दुःख को दूर करने के लिए अरहन्त को पहचानना चाहिए। अरहन्त के द्रव्य, गुण, पर्याय को जानकर, उन्हीं के समान अपने को मानना चाहिए कि मैं मात्र रागदशावाला नहीं हूँ, किन्तु मैं तो रागरहित परिपूर्ण ज्ञानस्वभाववाला हूँ, मेरे ज्ञान
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