Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1
_ 'अहो! आत्मा का स्वरूप तो ऐसा सर्वप्रकार शुद्ध है, पर्याय में जो विकार है, वह भी मेरा स्वरूप नहीं है। अरहन्त जैसी ही पूर्णदशा होने में जो कुछ शेष रह जाता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है। जितना अरहन्त में है, उतना ही मेरे स्वरूप में है'- इस प्रकार अपनी प्रतीति हुई, अर्थात् अज्ञान और विकार का कर्तृत्व दूर होकर स्वभाव की ओर लग गया और स्वभाव में द्रव्य, गुण, पर्याय की एकता होने पर सम्यग्दर्शन हो गया। अब उसी स्वभाव के आधार से पुरुषार्थ के द्वारा राग-द्वेष का सर्वथा क्षय करके अरहन्त के समान ही पूर्णदशा प्रगट करके मुक्त होगा; इसलिए अरहन्त के स्वरूप को जानना ही मोहक्षय का उपाय है। __ यह बात विशेष समझने योग्य है, इसलिए इसे अधिक स्पष्ट किया जा रहा है। अरहन्त को लेकर बात उठाई है, अर्थात् वास्तव में तो आत्मा के पूर्ण शुद्धस्वभाव की ओर से ही बात का प्रारम्भ किया है। अरहन्त के समान ही इस आत्मा का पूर्ण शुद्धस्वभाव स्थापित करके उसे जानने की बात कही है। पहले जो पूर्ण शुद्धस्वभाव को जाने, उसके धर्म होता है, किन्तु जो जानने का पुरुषार्थ ही न करे, उसके तो कदापि धर्म नहीं होता, अर्थात् यहाँ ज्ञान और पुरुषार्थ दोनों साथ ही हैं तथा सत् निमित्त के रूप में अरहन्त देव ही हैं, वह बात भी इससे ज्ञात हो गयी।
चाहे सौ टंची सोना हो, चाहे पचास टंची हो, दोनों का स्वभाव समान है, किन्तु दोनों की वर्तमान अवस्था में अन्तर है। पचास टंची सोने में अशुद्धता है, उस अशुद्धता को दूर करने के लिए, उसे सौ टंची सोने के साथ मिलाना चाहिए। यदि उसे 75 टंची सोने के साथ मिलाया जाए तो उसका वास्तविक शुद्धस्वरूप ख्याल में
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