Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[63 शक्तिरूप होता है और पर्याय प्रतिसमय व्यक्तिरूप होती है। गुण से कार्य नहीं होता, किन्तु पर्याय से होता है। पर्याय प्रति समय बदलती रहती है; इसलिए प्रति समय नयी पर्याय का उत्पाद और पुरानी पर्याय का व्यय होता ही रहता है। जब श्रद्धागुण की क्षायिकपर्याय (क्षायिकसम्यग्दर्शन) प्रगट होती है, तब से अनन्त काल तक वैसी ही रहती है; तथापि प्रतिसमय नयी पर्याय की उत्पत्ति और पुरानी पर्याय का व्यय होता ही रहता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, श्रद्धागुण की एक ही समयमात्र की निर्मलपर्याय है।
श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र के पहले अध्याय के दूसरे सूत्र में कहा है – “तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं" यहाँ 'श्रद्धान' श्रद्धागुण की पर्याय है; इस प्रकार सम्यग्दर्शनपर्याय को अभेदनय से श्रद्धा भी कहा जाता है। नियमसार शास्त्र की 13वीं गाथा में श्रद्धा को गुण कहा है। श्री समयसारजी की 155वीं में श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने कहा कि- "जीवादि श्रद्धानं सम्यक्त्वं", यहाँ भी श्रद्धान' श्रद्धागुण की पर्याय है – ऐसा समझना चाहिए।
उपरोक्त कथन से सिद्ध हुआ कि सम्यग्दर्शन, श्रद्धागुण की (सम्यक्त्वगुण की) एक समयमात्र की पर्याय ही है और ज्ञानीजन किसी समय अभेदनय की अपेक्षा से उसे 'सम्यक्त्वगुण' के रूप में अथवा आत्मा के रूप में बतलाते हैं।
सम्यक्त्व सिद्धिसुख का दाता है! प्रज्ञा, मैत्री, समता, करुणा तथा क्षमा-इन सबका सेवन यदि सम्यक्त्वसहित किया जाए तो वह सिद्धि सुख को देनेवाले हैं।
(-सार समुच्चय)
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