Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1
साथ परवस्तुओं के परिणमन का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए हे जीव! तू पर की व्यर्थ चिन्ता छोड़कर, स्व में एकाग्र हो!
अनादि काल से आत्मा ने पर का कुछ नहीं किया, अपने को भूलकर मात्र पर की चिन्ता की है। किन्तु हे आत्मन ! प्रारम्भ से अन्त तक की तेरी समस्त चिन्ताएँ निष्फल हो गई हैं, इसलिए अब तो स्वरूप की भावना कर और शरीरादिक परवस्तु की चिन्ता छोडकर निज को देख। अपने को पहिचानने पर, पर की चिन्ता छूट जायेगी और आत्मा की शान्ति का अनुभव होगा। तुझे अपने धर्म का सम्बन्ध आत्मा के साथ रखना है या पर के साथ? यहाँ यह बताया है कि आत्मा के धर्म का सम्बन्ध किसके साथ है ?
मैं चाहे जहाँ होऊँ: किन्त मेरी पर्याय का सम्बन्ध मेरे द्रव्य के साथ है, बाह्य संयोग के साथ नहीं है। चाहे जिस क्षेत्र में हों, किन्तु आत्मा का धर्म तो आत्मा में से ही उत्पन्न होता है, शरीर में से या संयोग में से धर्म की उत्पत्ति नहीं होती। जो ऐसी स्वाधीनता की श्रद्धा और ज्ञान करता है, उसे कहाँ आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं होगा? और जिसे ऐसी श्रद्धा तथा ज्ञान होता है, वह कहाँ शरीरादि का सम्बन्ध मानेगा? उसे कभी स्वभाव का सम्बन्ध नहीं टूटेगा
और पर का सम्बन्ध वहीं न मानेगा - बस, यही धर्म है और इससे ही मुक्ति है।
एक सैकेण्डमात्र का भेदज्ञान अनन्त भव का नाश करके मुक्ति प्राप्त कराता है; इसलिए वह भेदज्ञान निरन्तर भानेयोग्य है।
दर्शनशुद्धि से ही आत्मसिद्धि
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