Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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लिया, इसलिए जब अन्तरङ्ग में राग से भिन्न जानकर, उस राग से पृथक् करने की क्रिया शेष रही। इस प्रकार एकमात्र ज्ञानक्रिया ही आत्मा का कर्तव्य है। आत्मा, पर की क्रिया कर ही नहीं सकता। पर से भिन्नत्व की प्रतीति करेनवाला आत्मा ही है। प्रज्ञारूपी छैनी के द्वारा ही आत्मा, बन्ध से भिन्नरूप में पहिचाना जाता है और यह प्रज्ञाछैनी ही मोक्ष का उपाय है।
अनादि काल से जीव ने क्या किया है? और अब क्या करना चाहिए?
अनादि काल से आज तक किसी भी क्षण में किसी जीव ने पर का कुछ किया ही नहीं, मात्र निज का लक्ष्य चूककर पर की चिन्ता की है। हे भाई! तू अपने तत्त्व की भावना को छोड़कर, परतत्त्व की जितनी चिन्ता करता है, उतना ही उस चिन्ता का बोझ तेरे ऊपर है, उसी चिन्ता का तुझे दुःख बना रहता है, किन्तु तेरी उस चिन्ता से पर का कोई कार्य नहीं बनता और तेर अपना कार्य बिगड़ता जाता है। इसलिए हे भाई! अनादि काल से आज तक की तेरी परसम्बन्धी समस्त चिन्ताएँ असत्य सिद्ध हुई और वे सब निष्फल गई, इसलिए अब प्रज्ञा के द्वारा अपने भिन्न स्वरूप को जानकर, उसमें एकाग्र हो; पर की चिन्ता करना तेरा स्वरूप नहीं; इसलिए निश्चिन्त होकर, निज स्वरूप के चिन्तन द्वारा तेरे स्वकार्य को साध! ___तू परवस्तुओं को अपनी मानकर उनकी चिन्ता किया करे तो भी पर वस्तुओं का जो परिणमन होना है, वही होगा! और त परवस्तुओं को भिन्न जानकर उनका लक्ष्य छोड़ दे तो भी वे तो स्वयं परिणमित होती ही रहेंगी। तेरी चिन्ता हो या न हो, उसके
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