Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[35 आस्रवतत्त्व हैं, अनात्मा हैं, वह बन्ध का लक्षण है, आत्मा का नहीं। जहाँ तक चारित्र में कमजोरी है, वहाँ तक ज्ञानी को भी वे भाव आते हैं। ज्ञान का कार्य :
साधकदशा में राग होता है, तथापि ज्ञान उससे भिन्न है। राग के समय राग को राग के रूप में जाननेवाला ज्ञान, राग से भिन्न रहता है। यदि ज्ञान और राग एकमेक हो जायें तो राग को राग के रूप में नहीं जाना जा सकता। राग को जाननेवाला ज्ञान, आत्मा के साथ एकता करता है और राग के साथ अनेकता (भिन्नता) करता है। ज्ञान की ऐसी शक्ति है कि वह राग को भी जानता है। ज्ञान में जो राग होता है, वह तो ज्ञान की स्व-पर प्रकाशक शक्ति का विकास है, परन्तु अज्ञानी को अपने स्वतत्त्व की श्रद्धा नहीं होती; इसलिए वह राग को और ज्ञान को पृथक् नहीं कर सकता और इसीलिए वह राग को अपना ही स्वरूप मानता है, यही स्वतत्त्व का विरोध है। भेदज्ञान के होते ही ज्ञान और राग भिन्न ज्ञात होते हैं; इसलिए भेदविज्ञानी जीव, ज्ञान को अपने रूप में अङ्गीकार करता है और राग को बन्धरूप जानकर छोड़ देता है। यह भेदज्ञान की ही महिमा है।
राग के समय मैं रागरूप ही हो गया हूँ – ऐसा मानना एकान्त है, परन्तु राग के समय भी मैं तो ज्ञानरूप ही हूँ; मैं कभी रागरूप होता ही नहीं – इस प्रकार भिन्नत्व की प्रतीति करना, वह अनेकान्त है। राग को जानते हुए ज्ञान यह जानता है कि यह राग है' परन्तु ज्ञान यह नहीं जानता कि 'यह राग मैं हूँ' क्योंकि ज्ञान अपना कार्य राग से भिन्न रहकर करता है। दृष्टि का बल ज्ञानस्वभाव की ओर जाना चाहिए, उसकी जगह राग की ओर जाता है, यही
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