Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
34]
[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
शुद्धपर्याय ही लेनी चाहिए क्योंकि राग समस्त पर्यायों में व्याप्त होकर प्रवृत्त नहीं होता । बिना राग की पर्याय तो हो सकती है, परन्तु बिना चेतना की कोई पर्याय नहीं हो सकती; चेतना प्रत्येक पर्याय में अवश्य होती है। इसलिए जो राग है, वह आत्मा नहीं है, किन्तु चेतना ही आत्मा है । बन्धभावों की ओर न जाकर अन्तर स्वभाव की ओर उन्मुख होकर जो चैतन्य के साथ एकमेक हो जाती हैं, वे निर्मल पर्यायें ही आत्मा हैं, इस प्रकार निर्मल पर्यायों के साथ अभेद करके उसी को आत्मा कहा है और विकारभाव को बन्धभाव कहकर उसे आत्मा से अलग कर दिया है । यह भेदविज्ञान है ।
बन्धरहित अपने शुद्धस्वरूप को जाने बिना बन्धभाव को भी यथार्थतया नहीं जाना जा सकता । पुण्य-पाप दोनों विकार हैं, वे आत्मा नहीं हैं; चैतन्यस्वभाव ही आत्मा है। जितने दया-दानभक्ति इत्यादि के शुभभाव हैं, उनका आत्मा के साथ कोई मेल नहीं खाता, किन्तु बन्ध के साथ उनका मेल है।
प्रश्न - जबकि शुभभाव - पुण्य, आत्मा नहीं है, तब फिर परजीव की दया नहीं करना न ?
उत्तर - अरे भाई ! कोई आत्मा, परजीवों की दया का पालन कर ही नहीं सकता, क्योंकि अन्य जीव को मारने अथवा बचाने की क्रिया, आत्मा की कदापि नहीं है; आत्मा तो मात्र उसके प्रति दया के शुभभाव कर सकता है।
ऐसी स्थिति में यदि शुभ - दयाभाव को अपना स्वरूप माने तो उसे मिथ्यात्व का महापाप लगेगा। शुभ अथवा अशुभ कोई भी भाव, आत्मकल्याण में किञ्चित्मात्र सहायक नहीं है, क्योंकि वे भाव, आत्मा के स्वभाव से विपरीत लक्षणवाले हैं। पुण्य-पापभाव,
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.