Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[33 को बन्ध के रूप में निःशंकतया जानकर उसे छोड़ते जाते हैं और ज्ञान में एकाग्र हो जाते हैं, इसलिए ज्ञानी प्रतिक्षण बन्धभावों से मुक्त होते हैं। भेदविज्ञान की महिमा :
यहाँ तो भेदविज्ञान की ही प्रमुखता है, भेदज्ञान की अपार महिमा है। समयसार 131वें श्लोक में भेदज्ञान की महिमा को बताते हुए कहा है कि -
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो, बद्धा बद्धा ये किल केचन॥ अर्थात् – जितने भी सिद्ध हुए हैं, वे सब भेदविज्ञान से ही हुए हैं और जो बँधे हैं, वे सब उसी-भेदविज्ञान के अभाव से ही बँधे हैं।
भावार्थ – अनादि काल से लेकर जब तक जीव के भेदविज्ञान नहीं होता, तब तक वह बँधता ही रहता है - संसार में परिभ्रमण करता ही रहता है। जिस जीव को भेदविज्ञान होता है, वह कर्मों से अवश्य छूट जाता है - मोक्ष को अवश्य प्राप्त करता है; इसलिए कर्मबन्ध का अर्थात् संसार का मूल भेदविज्ञान का अभाव ही है और मोक्ष का प्रथम कारण भेदविज्ञान ही है। बिना भेदविज्ञान के कोई सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। आत्मा और बन्धभाव में भेद :
आत्मा के समस्त गुणों में और समस्त क्रमवर्ती पर्यायों में चेतना व्याप्त होकर रहती है। इसलिए चेतना ही आत्मा है। क्रमवर्ती पर्याय के कहने से उसमें रागादि विकार नहीं लेना चाहिए, किन्तु
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