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हए उन्होंने हजारों छात्रों को प्राकृत भाषा का बोध ही नहीं कराया किन्तु पचासों विद्यापियों को प्राकृत में निष्णात भी बना दिया । शास्त्रीजी ने प्राकृत भाषा और साहित्य का मालोचनात्मक इतिहास लिखकर प्राकृत-जगत् में एक महान कार्य किया। यही नहीं अभिनव प्राकृत व्याकरण' लिख कर प्राकृत प्रेमियों के लिये उसके पठन-पाठन को सरल बना दिया। शास्त्री जी न 'प्राकृत-प्रबोध' के माध्यम से प्राकृत-पाठों का सुन्दर संकलन उपस्थित किमा डा.शास्त्री जी ने अपने विद्यार्थियों की सुविधा के लिये पाइय-पज्ज-संग्रहों' एवं 'पाइय-गज्ज- संग्रहों इस प्रकार प्राकृत गद्य और पद्य के अलग-अलग संकलन निकाले जिससे विहार में प्राकृतभाषा के पठन-पाठन का अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हई ।
जीवन के अन्तिम वर्ष में 'तीर्थकर महावीर एव उनकी प्राचार्य-परम्परा' के चार भागों में जैनाचार्यों द्वारा निबद्ध साहित्य की अत्यधिक सुन्दर रूपरेखा प्रस्तुत की। इस महान कृति में प्राकृत भाषा के प्राचार्यों एवं उनकी कृतियों का विशद विवेचन किया गया है। वास्तव में गत सैकड़ों वर्षों में राजस्थान में प्राकृत भाषा का इतना प्रकाण्ड विद्वान् तथा प्रात साहित्य का अनन्य भक्त नहीं हुआ। एसे विद्वान् से सारा साहित्य-जगत गौरवान्वित है
उक्त आचार्यों, मुनियों एवं विद्वानों के अतिरिक्त राजस्थान में और भी पचासों साहित्य-सेवी हो गये हैं। जिन्होंने जन्मभर प्राकृत-साहित्य की सेवा ही नहीं की किंतु उस भाषा क ग्रंथों का हिन्दी एवं संस्कृत में टीकायें करक जन साधारण को उनक पठन-पाठन एवं स्वाध्याय की पूर्ण सुविधा प्रदान की। ऐसे विद्वानों में प्राचार्य अमृतचन्द्र, पं. राजम महा पंडित टोडरमल, प. जयचन्द छाबड़ा जसे विद्वानों के माम उल्लेखनीय है।