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“वैशाली का अभिषेक" कठपुतली नाटय की रचना, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर के संचालक श्री देवीलाल सांमर की पूतली नाटय क्षेत्र में मौलिक देन है। कठपुतलियों की छड़ दस्ताना शैली में इसका निर्माण किया गया है। इसके लिए मंच पर पूरा अन्धेरा कर दिया जाता है। दर्शक हाल भी इसके मंचन के समय पूर्ण अंधेरे में रहता है। इसमें पुतलियाँ विशेष रंग फ्लोरोसेण्ट और विशेष रोशनी अल्ट्रावायलेट में मंच पर प्रदर्शित की जाती हैं । लगभग एक घण्टे की इस नाटिका को देखते समय दर्शक माता त्रिशला के रंगीन आकर्षक स्वप्न लोक, शूलपाणि यक्ष के लोमहर्षक उपसर्ग और उससे अविचल बने भगवान महावीर के प्रशांत ज्योतिर्मय भव्य व्यक्तित्व से अभिभत हो एक अनोखी विस्मय विमग्धकारी रसानुभूति में डूबते-तरते रहते हैं। ब्लैक थियेटर की तकनीक के प्रयोग से रंग-योजना में विशेष चमत्कृति आ गई है। पूरी नाटिका भगवान महावीर के लोकोपकारी व्यक्तित्व और आत्मौपम्य मैत्री भाव के पालोक से विमण्डित है ।
एकांकी के क्षेत्र में जैन सांस्कृतिक धरातल से लिखे गए डा. नरेन्द्र भानावत के नौ एकांकी 'विष से अमत की ओर' संग्रह में संकलित हैं। इनमें 'यात्मा का पर्व' अन्तरावलोकन पर बल देकर जीवन में संयम, नैतिकता और मर्यादा की प्रतिष्ठा करता है। एटम, अहिसा और शांति' में यद्ध और शांति की समस्या को उठा कर एटम के सृजनात्मक पक्ष को उभारने पर बल दिया गया है। 'इन्सान की पूजा का दिन' दीपावली की रूढ़िगत पूजन विधि पर करारी चोट है। 'सच्चा यज्ञ' यज्ञ के लोक-कल्याणकारी रूप पर छाए हुए क्षुद्र स्वार्थी, विकारा
और कर्म-काण्डों को धुनने का सबल माध्यम है। 'अनाथी मुनि' म सनाथ-अनाथ विषयक तात्त्विक चर्चा के माध्यम से प्रात्मशक्ति और यात्म विश्वास जागत करने पर बल दिया गया है। 'तीर्थकर' में तीर्थकर के धर्मवक्र प्रवर्तन, उपदेश और लोककल्याणकारी स्वरूप की भव्य झांकी प्रस्तुत की गयी है। 'नमिराज और इन्द्र' में प्रात्म-साधना का माहात्म्य प्रकट किया गया है। ये सभी एकांकी जैन विचारधारा से सम्बन्धित होते हुए भी अपने मूल रूप में मानव संस्कृति के प्रतिपादक हैं ।।
श्री चन्दनमल 'चांद' ने प्रण व्रत आन्दोलन की चेतना से प्रेरित होकर प्रवेशक अणुव्रत के ग्यारह नियमों पर आधारित ग्यारह एकांकी लिखे हैं जिनका संकलन 'कंचन और कसाटी' नाम से हुआ है। इन एकांकियों की भावभ मि लोकजीवन से सम्बन्धित है और ये बड़े प्रभावक बन पड़े हैं।
(ख) उपन्यास-चरिताख्यान:--उपन्यास अपेक्षाकृत नवीन विधा है। इसमें चरित्र-परिवर्तन व चरित्न-विकास के लिए पर्याप्त अवसर होता है। मख्य कथा के साथ यहां कई प्रासंगिक कथाए जड़ी रहती हैं। युग विशेष के सांस्कृतिक चित्रण के लिए यहां पर्याप्त गजाइश होती है। मनोरंजन के साथ लोक-शिक्षण का आज उपन्यास सशक्त माध्यम बना हुआ है। जैन पृष्ठभूमि को लेकर राजस्थान के साहित्यकारों ने बहुत अधिक उपन्यास नहीं लिखे हैं। जो उपन्यास लिखे गए हैं उनको कथा के जल प्रेरणास्रोत जैन आगम, पुराण या चरित ग्रन्थ रहे हैं। श्री ज्ञान भारिल्ल का 'तरंगवती प्राचार्य पादलिप्त की प्राकृत रचना 'तरंगवई' का हिन्दी रूपान्तरण है। प्राचार्य अमतकुमार का 'कपिल' उत्तराध्ययन सूत्र के आठवें अध्ययन पर आधारित है। ज्ञान भारिल्ल के ही अन्य उपन्यास 'भटकते-भटकते' की कथा उद्योतनगरि कृत प्राकृत रचना 'कुवलयमाला' से ली गई है। महावीर काटिया के पात्मजयी' और 'कणिक' लघु उपन्यास तथा डा. प्रेम सूमन जैन के 'चितेरों के महावीर' भी परम्परागत जन आख्यानों से संबद्ध हैं, पर इससे इनका महत्त्व कम नहीं होता। इन उपन्यासकारों की मौलिकता कथा में निहित न होकर उसके प्रस्तुतीकरण और समसामयिक जीवन संदर्भ के सन्निवेश में है। प्रवाहपूर्ण भाषा, वर्णन-कौशल, चित्रोपम क्षमता, संवादयोजना, नलन शैली और नये रचनातन्त्र के कारण ये उपन्यास रोचक और मार्मिक बन पड़े हैं। परम्परागत कथाचयन