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देकर अनर्थ कर डालते हैं। खण्डित पाठ की पूर्ति करने के बहाने संशोधकों की मति-कल्पना भी पाठभेदों में अभिवृद्धि कर देती है क्योंकि पत्र चिपक जाने से, अक्षर उड़ जाने से, दीमक खा जाने से रिक्त स्थान की पूर्ति दूसरी प्रति से मिलाने पर ही शुद्ध होगी अन्यथा कल्पना प्रसृत पाठ भ्रान्त परम्परा को जन्म देने वाले होते हैं ।
ग्रंथ संशोधन की प्राचीन अर्वाचीन प्रणाली:
ज्ञान भण्डारस्थ ग्रन्थों के विशद अवलोकन से विदित होता है कि लिखते समय ग्रन्थ में भल हो जाती तो ताडपत्रीय लेखक अधिक पाठ को काट देते या पानी से पोंछ कर नया पाठ लिख देते थे। छूटे हुए पाठ को देने के लिए "A" पक्षी के पंजे की आकृति देकर किनारे XX के मध्य में 'A' देकर लिखा जाने लगा था। अधिक पाठ को हटाए हुए रिक्त स्थान को लकीर तथा अन्याकृति से पूर्ण कर दिया जाता था। सोलहवीं शताब्दी में प्रति संशोधन में आई हई काटाकाटी की असुन्दरता को मिटाने के लिए सफेदा या हरताल का प्रयोग होने लगा। अशुद्धि पर हरताल लगा कर शुद्ध पाठ लिखा जाने लगा। अशुद्ध अक्षर को सुधारने के लिए जैसे 'च' का 'व' करना हो, 'ष' का 'प' करना हो 'थ' का 'य' करना हो तो अक्षर के अधिक भाग को हरताल आदि से ढक कर शुद्ध कर दिया जाता, यही प्रणाली आज तक चालू है। वटक पाठ को लिखने के लिए तो उन्हीं चिन्हों को देकर हांसिये में लिखना पड़ता व आज भी यही रीति प्रचलित है ।
ग्रंथ संशोधन के साधन :
ग्रन्थ संशोधन करने के लिए पीछी, हरताल, सफेदा, चूंटो (अोपणी), गेरू और डोरे का समावेश होता है। अतः इन वस्तुओं के सम्बन्ध में निर्देश किया जाता है।
____ पीछी:-चित्रकला के उपयोगी पीछी-ब्रुश आदि हाथ से ही बनाने पड़ते और उस समय टालोरी-खिसकोली के बारीक बालों से वह बनती थी। ये बाल स्वाभाविक ग्रथित और टिकाऊ होते थे। कबतर की पांख के पोलार में पिरो कर या मोटी बनाना हो तो मयर के पांखों के ऊपरी भाग में पिरोकर तैयार कर ली जाती थी। डोरे को गोंद प्रादि से मजबत कर लिया जाता और वह चित्रकला या ग्रन्थ संशोधन में प्रयुक्त हरताल, सफेदा आदि में प्रयुक्त होती थी।
हरताल:--यह दगड़ी और वरगी दो तरह की होती है। ग्रन्थ संशोधन में 'वरगी हरताल' का प्रयोग होता है। हरताल के बारीक छने हए चूर्ण को बांवल के गोंद के पानी में मिला कर, घोटकर, आगे बताई हुई हिंगल की विधि से तैयार कर सुखा कर रखना चाहिए।
सफेदा:--सफेदा आज कल तैयार मिलता है। उसे गोंद के पानी में घोट कर तैयार करने से ग्रन्थ संशोधन में काम आ सकता है। पर हरताल का सौन्दर्य और टिकाऊपन अधिक
घूटा या प्रोपणी:--आगे लिखा जा चुका है कि अकोक, कसौटी या दरियाई कांडों से कागज पर पालिस होती है। हरताल, सफेदा लगे कागजों पर प्रोपणी करके फिर नए अक्षर लिखने से वे फैलते नहीं--स्याही फूटती नहीं ।
गेरू:--जैसे आजकल विशिष्ट वाक्य, श्लोक, पुष्पिका आदि पर लाल पैन्सिल से अण्डर लाईन करते हैं वैसे हस्तलिखित ग्रन्थों में भी आकर्षण के लिए पद, वाक्य, गाथा, परिच्छेद, परिसमाप्ति स्थान गेरू से रंग दिए जाते थे ।