Book Title: Rajasthan ka Jain Sahitya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Devendraraj Mehta

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Page 473
________________ 418 ( 14 ) टिप्पणक दर्शक चिन्ह: - - यह चिन्ह सूत्रपाठ के भेद - पर्याय प्रादि दिखाने के लिए वाक्य पर चिन्ह करके हांसिए में वही चिन्ह करके पर्यायार्थ या व्याख्या लिख दी जाती थी । ( 15 ) विशेषण विशेष्य सम्बन्ध दर्शक चिन्हः - - दूर-दूर रहे हुए शब्दों का विशेषणविशेष्य आकलन करने के लिए ये चिन्ह कर देने से प्रबुद्ध वाचक तत्काल संबंध को पकड़ लेतासमझ सकता है । ( 16 ) पूर्वपद परामर्शक चिन्ह: - - ये चिन्ह दुरुह हैं । तर्क शास्त्र के ग्रन्थ में बार-बार आने वाले तत् शब्द को अलग-अलग अर्थ द्योतक बताने के लिए व्यर्थ के टिप्पण न देकर संकेत से अर्थ समझने के लिए इन चिन्हों का प्रयोग होता था । साधारण लेखकों का समझ से बाहर विचक्षण विद्वानों के ही काम में आने वाले ये चिन्ह हैं । दार्शनिक विषय के ग्रन्थों के लम्बे सम्बन्धों पर भिन्न-भिन्न विकल्प चर्चा में उसका अनुसंधान प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के चिन्ह बड़े सहायक होते हैं । विद्वान जैन श्रमण वर्ग आज भी अपने गम्भीर संशोधन कार्य में इन शैलियों का अनुकरण करता है । जैन लेखन कला, संशोधन कला के प्राचीन अर्वाचीन साधनों पर यहां जो विवेचन हुआ है इससे विदित होता है कि जैन लेखन कला कितनी वैज्ञानिक, विकसित और अनुकरणीय थो । भारतीय संस्कृति के इतिहास में जैनों का यह महान् अनुदान सर्वदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा । जैन ज्ञान भंडारों का महत्त्व : प्रारम्भ में जो जैन श्रमण वर्ग श्रुतज्ञान को लिपिबद्ध करने के विपक्ष में था वह समय के अनुकूल उसे परम उपादेय मानने लगा और देवद्ध गणि क्षमाश्रमण के समय से ज्ञानोपकरण का सविशेष प्रयोग करने के लिए उपदेश देने लगा । आज हमारे समक्ष तत्कालीन लिखित वाङमय का एक पन्ना भी उपलब्ध नहीं है । अतः वे कैसे लिखे जाते थे, कैसे संशोधन किया जाता था, कहां और किस प्रकार रखा जाता था, इस विषय में प्रकाश डालने का कोई साधन नहीं है । गत एक हजार वर्ष के ग्रन्थ व ज्ञान भण्डार विद्यमान हैं जिससे हमें मालूम होता है कि श्रुतज्ञान की अभिवृद्धि में जैन श्रमण और श्रावक वर्ग ने सविशेष योगदान किया था । श्री हरिभद्रसूरिजी ने यागदृष्टिसमुच्चय में 'लेखना पूजना दानं' द्वारा पुस्तक लेखन को योग भूमिका का अंग बतलाया है । 'मह जिणाणं प्राण' सज्झाय में पुस्तक लेखन को निम्नोक्त गाथा में श्रावक का नित्य - कृत्य बतलाया है । संघोवरि बहुमाणो पुत्थयलिहणं पभावणा तित्थे । सड्ढाणकिच्चमेयं निच्च सुगुरूवएसेणं |15|| बारहवीं शताब्दी में सूराचार्य ने भी 'दानादिप्रकाश' के पांचवें प्रवसर में पुस्तक लेखन की बड़ी महिमा गायी है । "उस जमाने में ग्रन्थों को ज्ञान भण्डारों में रखा जाता था । एक हजार वर्ष पूर्व भी राजाओं के यहां पुस्तक संग्रह रखा जाता था, सरस्वती भण्डार होते थे । चैत्यवासियों से सम्बन्धित मठ-मन्दिरों में भी ज्ञानकक्ष अवश्य रहता था I सुविहित शिरोमणि श्री वर्द्धमानसूरि-जिनेश्वरसूरि के पाटन की राजसभा में चैत्यवासियों के साथ हुए शास्त्रार्थ में पाटण के सरस्वती भण्डार से ही 'दशव कालिक' ग्रन्थ लाकर प्रस्तुत किया गया था । मुसलमानी काल में नालन्दा विश्वविद्यालय के ग्रन्थागार की भांति प्रगणित ज्ञान

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