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1. हस्तलिखित पुस्तक को प्रति कहते हैं जो प्रतिकृति का संक्षिप्त रूप प्रतीत होता है।
2. हस्तलिखित प्रति के उभयपक्ष में छोड़े हुए मार्जिन को हांसिया कहते हैं और ऊपर नीचे छोड़े हुए खाली स्थान को जिव्हा या जिब्भा-जीभ कहते हैं।
3. हांसिये के ऊपरिभाग में ग्रन्थ का नाम, पत्रांक, अध्ययन, सर्ग, उच्छवास प्रादि लिखे जाते हैं जिसे हुण्डी कहते हैं ।
4. ग्रन्थ की विषयानुक्रमणिका को बीजक नाम से सम्बोधित किया जाता है।
5. पुस्तकों के लिखित अक्षरों की गणना करके उसे ग्रन्थाओं तथा अंत में समस्त प्रध्यायादि के श्लोकों को मिलाकर सर्व ग्रंथ या सर्व ग्रन्थानं संख्या लिखा जाता है।
6. मूल जैनागमों पर रची हुई गाथाबद्ध टीकात्रों को नियुक्ति कहते हैं।
7. मूल आगम और नियुक्ति पर रची हुई विस्तृत गाथाबद्ध व्याख्या को भाष्य या महाभाष्य कहते हैं । भाष्य और महाभाष्य सीधे मूलसूत्र पर भी हो सकते हैं, यों नियुक्ति, भाष्य और महाभाष्य ये सब गाथाबद्ध टीका ग्रन्थ होते हैं ।
8. मूल सूत्र, नियुक्ति, भाष्य और महाभाष्य पर प्राकृत-संस्कृत मिश्रित गद्यबद्ध टीका को चूणि और विशेष चूणि नाम से पहिचाना जाता है।
9. जैनागमादि ग्रन्थों पर जो छोटी-मोटी संस्कृत व्याख्या होती है उसे वृत्ति, टीका, व्याख्या, वार्तिक, टिप्पणक, प्रवचूरि, अवचूणि, विषम पद व्याख्या, विषम पद पर्याय आदि विविध नामों से संबोधित किया जाता है।
10. जैनागमादि पर गुजराती, मारवाडी, हिन्दी आदि भाषाओं में जो अनुवाद किया जाता है, उसे स्तबक टबा या टबार्थ कहते हैं। विस्तृत विवेचन बालावबोध कहलाता है।
11. मुल जैनागमों की गाथाबद्ध विषयानक्रमणिका व विषय वर्णानत्मक गाथाबद्ध प्रकरण को एवं कितनी ही बार प्राकृत-संस्कृत मिश्रित संक्षिप्त व्याख्या को भी संग्रहणी नाम दिया जाता है।
इस निबन्ध में श्वेताम्बर ज्ञान भण्डारों के अनुभव के आधार पर प्राप्त सामग्री पर प्रकाश डाला गया है। दिगम्बर समाज के ज्ञान भण्डार व लेखन सामग्री पर अध्ययन अपेक्षित है। श्वेताम्बर समाज में विशेषकर मन्दिर पाम्नाय के साहित्य पर विशेष परिशीलन हरा है। आगमप्रभाकर परम पूज्य मुनिराज श्री पुण्यविजय जी महाराज की "भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखनकला" निबन्ध पर आधारित यह संक्षिप्त अभिव्यक्ति है।