Book Title: Rajasthan ka Jain Sahitya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Devendraraj Mehta

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Page 474
________________ 419 भण्डारों व ग्रन्थों को जला कर नष्ट कर डाला गया। यही कारण है कि प्राचीनतम लिखे ग्रन्थ ग्राज उपलब्ध नहीं हैं। जिस प्रकार देवालयों और प्रतिमाओं के विनाश के साथ-साथ नव-निर्माण होता गया उसी प्रकार जैन शासन के कर्णधार जैनाचार्यों ने शास्त्र निर्माण व लेखन का कार्य चाल रखा। जिसके प्रताप से आज वह परम्परा बच पाई। भारतीय ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जैन ज्ञान भण्डार एक अत्यन्त गौरव की वस्तु है। ज्ञान भंडारों की स्थापना व अभिवृद्धि : हस्तलिखित ग्रन्थों के पुष्पिका लेख तथा कुमारपाल प्रबन्ध, वस्तुपाल चरित्र, प्रभावक चरित्र, सुकृतसागर महाकाव्य, उपदेश तरंगिणी, कर्मचन्द मंत्रिवश-प्रबन्ध, अनेकों रास एवं ऐतिहासिक चरित्रों से समृद्ध श्रावकों द्वारा लाखों-करोड़ों के सद्व्यय से ज्ञान कोश लिखवाने तथा प्रचारित करने के विशद्ध उल्लेख पाए जाते हैं। शिलालेखों की भांति ही ग्रन्थलेखन-पुष्पिकाओं व प्रशस्तियों का बड़ा भारी ऐतिहासिक महत्व है। जैन राजाओं, मन्त्रियों एवं धनाढ्य श्रावकों के सत्कार्यों की विरुदावली में लिखी हुई प्रशस्तियां किसी भी खण्ड काव्य से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। गूर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह और कुमारपालदेव ने बहुत बड़े परिमाण में शास्त्रों को ताड़पत्रीय प्रतियां स्वर्णाक्षरी व सचित्रादि तक लिखवायी थीं। यह परम्परा न केवल जैन नरपति श्रावक वर्ग में ही थी परन्तु श्री जिनचन्द्रसूरिजी को अकबर द्वारा 'युगप्रधान पद देने पर बीकानेर महाराजा रायसिंह, कुंअर दलपतसिंह आदि द्वारा भी संख्याबद्ध प्रतियां लिखवा कर भेंट करने के उल्लेख मिलते हैं एवं इन ग्रन्थों की प्रशस्तियों में बीकानेर, खंभात प्रादि के ज्ञान भण्डारों में ग्रन्थ स्थापित करने के विशद वर्णन पाए जाते हैं। त्रिभुवनगिरि के यादव राजा कुमारपाल द्वारा प्रदत्त पुस्तिका के काष्ठफलक का चित्र, जिसमें जैनाचार्य श्री जिनदत्तसूरि और महाराजा कुमारपाल का चित्र है । इस पर "नपतिकुमारपाल भक्तिरस्तु' लिखा हुआ है। सम्राट अकबर अपनी सभा के पंडित यति पद्मसुन्दर का ग्रन्थ भण्डार, हीर दिजयसूरि को देना चाहता था, पर उन्होंने लिया नहीं, तब उनकी निष्पहता से प्रभावित होकर आगरा में ज्ञान भण्डार स्थापित किया गया था । जैन श्रावकों ने अपने गुरुओं के उपदेश से बड़े-बड़े ज्ञान भण्डार स्थापित किए थे। भगवती सूत्र श्रवण करते समय गौतम स्वामी के छत्तीस हजार प्रश्नों पर स्वर्ण मुद्राएं चढ़ाने का पेथडशाह, सोनी संग्रामसिंह आदि का एवं छत्तीस हजार मोती चढ़ाने का वर्णन मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र के चरित्र में पाया जाता है। उन मोतियों के बने हुए चार-चार सौ वर्ष प्राचीन चन्द्रवा पूठिया आदि चालीस वर्ष पूर्व तक बीकानेर के बड़े उपाश्रय में विद्यमान थे। श्री जिनभद्रसूरि जी के उपदेश से जैसलमेर, पाटण, खंभात, जालोर, देवगिरि, नागौर आदि स्थानों में ज्ञान भण्डार स्थापित होने का वर्णन उपाध्याय समयसुन्दर गणि कृत 'कल्पलता' ग्रन्थ में पाया जाता है। धरणाशाह, मण्डन, धनराज और पेथड़शाह, पर्वत कान्हा एवं भणशाली थाहरुशाह ने ज्ञान भण्डार स्थापित करने में अपनी लक्ष्मी का मुक्त हस्त से व्यय किया था। थाहरुशाह का भण्डार आज भी जैसलमेर में विद्यमान है। जैन ज्ञान भण्डारों में बिना किसी धार्मिक भेद. भाव के जो ग्रन्थ संग्रहीत किए गए, आज भी भारतीय वाङ्मय के संरक्षण में गौरवास्पद है। क्योंकि अनेक जैनेतर ग्रन्थों को संरक्षित रखने का श्रेय केवल जैन ज्ञान भण्डारों को ही है। वर्तमान में जैन ज्ञान भण्डार सारे भारतवर्ष में फैले हए हैं। यद्यपि लाखों ग्रन्थ अयोग्य उत्तराधिकारियों द्वारा नष्ट हो गए, बिक गए, विदेश चले गए, फिर भी जैन ज्ञान भण्डारों में स्थित अवशिष्ट लाखों ग्रन्थ शोधक विद्वानों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। गुजरात में पाटण, अहमदाबाद, पालनपुर, राधनपुर, खेड़ा, खंभात, छाणी, बड़ोदा, पादरा, दरापरा, डभोई, सिनोर, भरोंच, सुरत एवं महाराष्ट्र में बम्बई व पूना के ज्ञान भण्डार सुप्रसिद्ध है ।

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