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11. कवि जसराज (जिनहर्ष)
ये खरतरगच्छीय शान्तिहर्ष के शिष्य थे। इनका प्रसिद्ध नाम जसराज और दीक्षा नाम जिनहर्ष था। प्रारम्भिक जीवन तो राजस्थान में घूमते ही बीता और पिछले कई वर्ष गुजरात-पाटन में रहे। राजस्थानी भाषा के तो ये बहुत बड़े कवि थे। इनकी रचनाओं का परिमाण लगभग एक लाख श्लोक का है। छोटी-मोटी करीब 500 रचनायें इनकी प्राप्त हैं। सं. 1704 से 1763 तक की इनकी रचनायें मिलती हैं, अर्थात 60 वर्ष तक ये निरन्तर साहित्य सर्जन करते रहे हैं। इस महाकवि के सम्बन्ध में डा. ईश्वरानन्द शर्मा ने शोध प्रबन्ध लिखकर पी-एच-डी प्राप्त की है। राजस्थानी के अतिरिक्त हिन्दी में भी इन्होंने कई उल्लेखनीय रचनायें की है। इनमें से "नन्द बहोत्तरी' सं. 1714 वील्हावास में रची गई है। इसमें नंदवश के महाराजा नन्द और उसके मन्त्री विरोचन की रोचक कथा 72 दोहों में है। इनकी दूसरी रचना 'जसराज बावनी' 57 सवैया छंदों में सं. 1738 में रची गई है। तीसरी रचना 'दोहा बावनी' सं. 1730 में रची गई है। चौथी रचना 'उपदेश छत्तीसी' 36 सवैया छंदों में सं. 1713 में रची गई है। इनके अतिरिक्त चौवीस तीर्थकरों के चौवीस पद, बारहमासा द्वय, पनरह तिथि का सर्वया आदि कई हिन्दी रचनायें 'जिनहर्ष ग्रन्थावली' में प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें से उपदेश छत्तीसी का एक छंद उदाहरण के तौर पर दिया जा रहा है:---
जैसे अंजुरी को नीर कोऊ गह नरधीर, छिन छिन जाइ वीर राख्यो न रहात है। तसे घटि जै है आऊ कोटिक करो उपाऊ, थिर रह नहीं सही बातन की बात है। ऐसे जीव जाणि के सुकृत करि धरि मन, समता मै रमता रहे तो नीकि घात है। प्रथिर देही सुं उपगार यौ हों सार जिन
हरख सुथिर जस मौन मैं लहातु है ।। 25 ।। 12. आनन्दघन
इनका मूलनाम लाभानन्द था। सं. 1730 के आसपास मेड़ता में इनका स्वर्गवास हुआ था। बड़े अध्यात्मयोगी पुरुष थे। इनकी चौवीसी और पद बहुतरी बहुत ही प्रसिद्ध है। वैसे पदों की संख्या करीबन 150 तक पहुंच चुकी है। इनमें से कई पद अन्य कवियों के रचित होने पर भी इनके नाम से प्रसिद्ध हो गए हैं। इनके पदों में से एक प्रसिद्ध पद नीचे दिया जा
राम कहाँ रहिमान कहौ, कोउ कान्ह कही महादेव री। पारसनाथ कहो कोऊ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वमेव री ॥ राम .1 ।। भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खण्ड कलपना रोपित, आप अखण्ड सरूप री॥राम. 20 निज पद रमै राम सो कहिय, रहम कर रहमान री । . कर करम कान्ह सो कहिय, महादेव निरवाण री ॥राम. 3॥ परस रूप सो पारस कहिय, ब्रह्म चिन्ह सो ब्रह्म री । इहविध साध्यो पाप प्रानन्दघन, चेतनमय निःकर्मरी ॥राम.4॥
. जन दर्शन शास्त्र के महाविद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी ने आनन्दधनजी की जो भावपूर्ण अष्टपदी की रचना की है, उससे प्रानन्दघनजी की महानता और विशिष्टता का सहज ही पता चल जाता है।