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राजस्थान के जैन शिलालेख
-रामवल्लभ सो नानो
राजस्थान से प्राप्त शिलालेखों में जैन शिलालेखों की संख्या अधिक है। ये लेख प्रायः मन्दिरों, मूर्तियों, स्तम्भों, निषेधिकारों और कीर्तिस्तम्भों पर विशेष रूप से उत्कीर्ण मिलते हैं। इनके अतिरिक्त सुरह लेख एवं चट्टानों पर खुदे लेख भी कुछ मिले हैं। मोटे तौर पर जैन लेखों को निम्नांकित पांच भागों में बांट सकते हैं:--
(1) ऐतिहासिक लेख, 2) मन्दिरों की प्रतिष्ठा एवं व्यवस्था सम्बन्धी लेख, 3) यात्रा सम्बन्धी विवरण, (4) मतियों के लेख, (5) निषेधिकारों और कीर्तिस्तम्भों के लेख ।
राजस्थान से प्राप्त लेखों में बडली का बहुचर्चित लेख प्राचीनतम माना जाता है, किन्तु इस लेख के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों में मतभेद रहा है। मध्यमिका से एक खण्डित लेख मिला है जिसमें 'सब जीवों को दया के निमित्त' भावना युक्त कुछ खण्डित ग्रंश है। इसे जैन अथवा बौद्ध लेख मान सकते हैं। इसके अतिरिक्त राजस्थान से प्राचीनतम जैन लेख अपेक्षाकृत कम मिले हैं, यद्यपि यहां ख्याति प्राप्त प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्रसूरि, उद्योतनसुरि, एलाचार्य जैसे विद्वान हुए है। साहित्यिक आधारों से यहां कई प्राचीन मन्दिरों की स्थिति का पता चलता है किन्तु प्राचीनतम शिलालेखों का नहीं मिलना उल्लेखनीय है। मथुरा प्राचीन काल से जैन धर्म का केन्द्र स्थल रहा है। यहां से जैन साधुओं को दक्षिणी भारत अथवा गुजरात में जाने के लिए, नि:संदेह राजस्थान से होकर यात्राएं करनी पड़ती थीं किन्तु इनके कोई शिलालेख नहीं मिले हैं। राजस्थान से प्राप्त जैन लेखों का विवेचन इस प्रकार है:--
1. ऐतिहासिक लेख
जैन शिलालेखों का ऐतिहासिक महत्व अत्यधिक है। प्राचीन काल से हो जैनियों में इतिहास लिखने की सुदढ़ परम्परा रही है। कालगणना सम्बन्धी जैनियों का ज्ञान उल्लेखनीय रहा है। जैन विद्वानों द्वारा किंचित् प्रशस्तियों में ऐतिहासिक महत्व की सामग्री अत्यधिक पाई गई है। इस सम्बन्ध में एक रोचक वृत्तान्त प्रस्तुत किया जा सकता है। वि. सं. 1330 की चीरवा की प्रशस्ति एवं वि. सं. 1324 की घाघसा की अजैन प्रशस्तियों की रचना जैन विद्वान चैत्रगच्छाचार्य रत्नप्रभसूरि ने की थी। दोनों प्रशस्तियों में मेवाड़ के महाराणाओं के सम्बन्ध में कई महत्वपूर्ण सूचनायें दी गई हैं। लगभग इसी समय वेदशर्मा नामक चित्तौड़ निवासी ब्राह्मण ने दो प्रशस्तियां वि. सं. 1331 की चित्तौड़ की और वि. सं. 1342 की अचलेश्वर मन्दिर प्राबू की प्रशस्तियां बनाईं। दोनों में भी मेवाड़ के राजारों का वर्णन है। इन दोनों की तुलना करने पर पता चलता है कि वेद शर्मा द्वारा विरचित प्रशस्तियां ऐतिहासिक तथ्यों से परे अलंकारिक एवं परम्परागत वर्णन लिए हुए ही हैं।