Book Title: Rajasthan ka Jain Sahitya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Devendraraj Mehta

View full book text
Previous | Next

Page 453
________________ 398 लेखनी:-आजकल लेखन कार्य फाउण्टेनपैन, डॉटपेन आदि द्वारा होने लगा है पर प्रागे होल्डर, पैन्सिल आदि का अधिक प्रचार था। इससे पूर्व बांस, बेंत, दालचीनी के अण्ट इत्यादि से लिखा जाता था। आजकल उसकी प्रथा अल्प रह गई है, पर हस्तलिखित ग्रन्थों को लिखने में आज भी कलम का उपयोग होता है। कागज, ताडपत्र पर लिखने के उपयुक्त ये लेखनियां थीं, पर कर्नाटक, सिंहल, उत्कल, ब्रह्मदेशादि में जहां उत्कीणित करके लिखा जाता है वहां लोहे की लेखनी प्रयुक्त होती थी। कागजों पर यंत्र व लाइनें बनाने के लिए जजवल का प्रयोग किया जाता था जो लोहे के चिमटे के आकार की होती थी। लोह लेखनी में दोनों तरफ ये भी लगे रहते थे। आजकल के होल्डर की निबें इसी का विकसित रूप कहा जा सकता है। कलमों के घिस जाने पर उसे चाक से पतला कर लिया जाता था तथा बीच में खड़ा चीरा देने से स्याही उसमें से उतर पाने में सुविधा होती है। निबों में यह प्रथा कलम के चीरे का ही रूप है। लेखनियों के शभाशभ कई प्रकार के गण दोषों को बताने वाले श्लोक पाए जाते हैं जिनमें उनकी लम्बाई, रंग, गांठ आदि से ब्राह्मणादि वर्ण, पाय, धन, संतानादि हानि वद्धि आदि के फलाफल लिखे हैं। उनकी परीक्षा पद्धति, ताडपत्रीय यग की पुस्तकों से चली पा रही है। रत्न-परीक्षा में रत्नों के श्वेत, पीत, लाल और काले रंग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की भांति लेखनी के भी वर्ण समझना चाहिए। इसका कैसे उपयोग व किस प्रकार करना, इसका पुराना विधान तत्कालीन विश्वास व प्रथानों पर प्रकाश डालता है। वतरणा:--लेखनी-कलम की भांति यह शब्द भी लिखने के साधन का द्योतक है । लिपि को लिप्यासन पर 'अवतरण' करने के संस्कृत शब्द से यह शब्द बनना संभव है। काठ की पाटी जिसे तेलिया पाटी कहते थे, धुल डाल कर लिखने का साधन वतरणा था। फिर स्लेट की पाटी पर व टीन व गत्ते की पाटी पर लिखने की स्लेट पंसिल को भी भाषा में वतरणा कहते हैं। ललितविस्तर के लिपिशाला संदर्शन परिवर्त में 'वर्णातिरक' शब्द से वतरणा बनने का कुछ लोग अनुमान करते हैं । जुजवल:--इस विषय में ऊपर लेखनी के संदर्भ में लिखा जा चुका है। इसका स्वतंत्र अस्तित्व था और संस्कृत 'युगबल' शब्द से इसकी व्युत्पत्ति संभव है। यह चिमटे के आकार की दोनों ओर लगी लेखनी वाली लोह लेखनी थी। पुराने लहिये इसका प्रयोग लेखन समय में हांसिया आदि की लाल लकीरें खींचने में किया करते थे। प्राकार:--चित्रपट, यंत्र आदि लेखन में गोल प्राकृति बनाने में आजकल के कम्पास की भांति प्रयोग में आता था। विविध शिल्पी लोग भी इसका उपयोग करते हैं। मोलिया फांटिया:-कागज की प्रतियां लिखते समय सीधी लकीरें जिसके प्रयोग में पाती है वह गुजरात में पोलिया व राजस्थान में फांटिया कहलाता है। लकड़ी के फलक या गत्त के मजबूत पूठे पर छेद कर मजबत सीधी डोरी छोटे-बड़े अक्षरों के चौड़े-संकड़े अन्तरानुसार उभय पक्ष में कसकर बांध दी जाती है और उस पर इमली, चांवल या रंग-रोगन लगाकर तैयार किये फांटिये पर कागज को रख कर अंगलियों द्वारा टान कर लकीर चिन्हित कर ली जाती है। ताडपत्रीय प्रतियों पर फांटिये का उपयोग न होकर छोटी-सी बिन्द सीधी लकीर पाने के लिए कर दी जाती थी। श्रावकातिचार में लेखन-ज्ञानोपकरण में इसे अोलिया लिखा है। राजस्थान में आजकल कागज के लम्बे टकड़ों को पोलिया कहते हैं जिस पर चिट्ठी लिखी जाती है। कंबिका:--ताडपत्रीय लेखनोपकरण के प्रसंग में ऊपर कांबी के विषय में बतलाया जा चुका है। आजकल फट की भांति चपटी होने से माप करके हांसिये की लकीर खींचने व ऊपर अंगुलियां रख कर लिखने के प्रयोग में आने वाला यह उपकरण है। यह बांस, हाथीदांत या चन्दन काष्ठादिक की होती है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550