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इनमें ग्रांख, पैर और कमर की मजबती आवश्यक है। बैठने के लिए कंबल-दर्भासन व कोठरी-कमरा के अतिरिक्त अवशिष्ट स्टेशनरी-लेखन सामग्री है ।
लहिये लोग विविध प्रकार के पासनों में व विविध प्रकार से कलम पकड़ कर या प्रतियां रख कर लिखने के अभ्यस्त होने से अपने लेखनानकल कलम का पर व्यक्ति को देने में माते थे। अतः पुस्तकों की पुप्पिका के साथ निम्न सुभाषित लिख दिया करते थे:---
लेखिनी पुस्तिका रामा परहस्ते गता गता । कदाचित पुनरायाता लष्टा भ्रष्टा च धर्षिता (या चम्बिता) ।
लखन विराम:
लिखते समय यदि छोड़ कर उठना पड़े तो वे अपने विश्वास के अन सार ‘घ झट ड़ त प ब ल व श' अक्षर लिखते छोड़ कर या अलग कागज पर लिख के उठते हैं। अवशिष्ट अक्षर लिखते उठ जाने पर उन्हें पुस्तक के कट जाने, जन्त खा जाने तथा नष्ट हो जाने के विविध संदेह हते थे। इन विश्वासों का वास्तविकता में क्या सम्बना है? कहा नहीं जा सकता।
नातक की निर्दोषता ::
जिस प्रकार ग्रन्थकार अपनी रचना में हुई स्खलना के लिए क्षमा प्रार्थी बनता है वैसे ही लखक अपनी परिस्थिति और निर्दोषता प्रकट करने वाले शलाक लिखा है--
यादशं पुस्तके दष्ट तादश लिखित मया । यदि शमशुद्ध वा मम दोषो न दीयते ।। भग्नपाठ-कटिग्रीवा-बक्रदष्टिरधोमखम् । काप्टेन लिखितं शारत्रं यत्नेन परिपालयेत ।। बद्धमष्टि-कटिग्रीवा--चक्रप्टिरधामखम । काटेन लिखितं शास्वं यत्नन पतिपालयेत् ॥ इत्यादि ।
भ्रांतिमूलक अशुद्धियां :
प्राचीन प्रतियों की नकल करते समय लिपि अल्पज्ञता से या भ्रांत पठन से, अक्षराकृति माम्प या संयुक्ताक्षरों की दुरुहता से अनेकश: अशद्ध परम्परा चल पड़ती थी। एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, मिलते-जुलते अणद्ध वाक्यों का शुद्ध करने जाते नवीन पाठान्तरों की सृष्टि हामाती, जिमका संशाधन विभीनमवी विज्ञान मंणोधक के हाथों में पड़ने पर ही संभव होता।
का 'त्थ' और 'स्थ' का 'क' ही जाना तानामली वाल थी।
ग्रन्थ लेखनारंभ :
भारतीय संस्कृति में न केवल ग्रन्थ रलना में ही विन्तु ग्रन्थ लेखन के समय नहिय लोग सर्वप्रथम मंगलाचरण करते थे, यह चिरपरिपाटी है। जंगलखक "ॐ नमः, ऐ गम..ना