Book Title: Rajasthan ka Jain Sahitya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Devendraraj Mehta

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Page 446
________________ 391 मन्दिर में है। इसी प्रकार वि. सं. 1219 की लेख युक्त प्रतिमा लाडनू के दिगम्बर जैन मन्दिर में है। इसी प्रकार जैन श्रेष्ठियों या उपासकों की मूर्तियां भी मिलती हैं। प्राब के विमलवसही के सभा मण्डप में वि. सं. 1378 में जीर्णोद्धार कराने वाले परिवार की प्रतिमायें बनी हई हैं। इसी मन्दिर में कुमारपाल के मंत्री कपर्दि के मां की प्रतिमा वि.सं. 1226 के लेख युक्त वहां लग रही है। व समसामयिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति के अध्ययन के लिये बहुत ही उपयोगी हैं। इनमें श्रेष्ठियों के वंशों का विस्तृत वर्णन, उनके पूर्वजों द्वारा समय-समय पर कराये गये धार्मिक कार्यों का विवरण आदि रहता है। श्रेष्ठियों के आगे भंडारी, व्यवहारी, महत्तर, मंत्री, श्रेष्ठ, शाह, ठक्कुर, गोष्ठिक, संघपति आदि कई शब्द भी मिलते हैं। आब के पित्तलहर मंदिर में वि. सं. 1225 के लेख में श्रेष्ठ रामदास को राजाधिराज उपाधि युक्त लिखा है। यह पदवी उसे गुजरात के सुल्तान द्वारा दी गई थी। गुजरात के सुल्तान ने चित्तौड़ के जैन श्रेष्ठि गुणराज को सन्मानित किया था । इन लेखों में खंडेलवाल, अग्रवाल, धर्कट, पोरवाल, पल्लीवाल,श्रीमाल, प्रोसवाल, बघेरवाल आदि के उल्लेख विशेष रूप से मिलते हैं। कुछ ब्राह्मणों द्वारा जैन प्रतिमायें बनाने के भी रोचक वतान्त मिलते हैं। डंगरपुर से 15वीं शताब्दी के कई श्रेष्ठियों ने विष्णु की प्रतिमाय बनाई थीं। मूर्तियों के लेखों से ही चन्द्रावती के व मंडोर के जैन श्रेष्ठियों आदि के बारे में जानकारी मिली है। ये लेख नहीं होते तो कवीन्द्र बन्धु यशोवीर, नागपुरिया, बाहडिया परिवार तथा देवकुल पाटक के जैन परिवारों के बारे में हमारे पास सूचना नहीं के बराबर होती। 5. निषेधिकाओं और कीर्तिस्तम्भी के लेख निषेधिकाओं और कीर्तिस्तम्भों के लेख अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। निषेधिकारों के प्राचीनतम लेख राजस्थान से सम्भवतः रूपनगढ से 10वीं शताब्दी के मिले हैं। 14वीं शताब्दी के बाद से ऐसे लेख अधिक संख्या में मिलते है। चितौड़ के पास गंगरार, सैणवा और बिजौलिया से जो लेख मिले हैं ये उल्लेखनीय है। इनमें प्राचार्य या आर्थिका जो मरग-समाधि लेती है उसका माम और उसके पूर्व-प्राचार्यों की परम्परा का उल्लेख रहता है। कीर्तिस्तम्भों के लेखों में वि. सं. 918 का घटियाला लेख और चित्तौड़ के जैन कोर्तिस्तम्भ सम्बन्धी शिलालेख उल्लेखनीय है। घटियाला का पूरा लेख प्राकृत में है और बहुत ही महत्वपूर्ण है। चित्तौड़ के कीर्तिस्तम्भ से सम्बन्धित 3 शिलालेख हाल ही में मैंने अनेकान्त में प्रकाशित कराये हैं। यह कीर्तिस्तम्भ 13 वीं शताब्दी में बघेरवाल श्रेष्ठ जीजा ने शुरु कराया था जिसकी प्रतिष्ठा उसके पुत्र पूर्णसिंह ने की थी। इसे माणस्तम्भ कहा गया है। इसी प्रकार पट्टावली स्तम्भ भी बनते हैं। वि. सं. 1706 का पट्टावली स्तम्भ लेखयुक्त चाकसू के जैन मन्दिर का आमेर में लग रहा है। शिलालेखों की विशेषताएं जैन लेखों की शैली भी उल्लेखनीय है। मन्दिर को प्रतिष्ठा में प्रायःप्रारम्भ में तीर्थंकरों की स्तुति, राजवंश वर्णन, वंश वर्णन आदि रहता है। मूर्ति लेख इससे कुछ भिन्न होते हैं। इनमें संवत् और उसके बाद श्रेष्ठि वर्ग का नाम और उसके वश का वर्णन, उसके बाद बिम्ब का उल्लेख और प्रतिष्ठा करने वाले साधु का प्रायः वर्णन रहता है। इन लेखों से जैन धर्म को जो राज्याश्रय मिला उसकी पूर्ण सूचना मिलती है। वि.सं. 1372 और 1373 के महारावललका के और वि.सं. 1506 के महाराणा कुम्भा के लेखों से सूचित होता है कि आबू पर आने वाले यात्रियों से लिये जाने वाले करों की छुट थी। बरकाणा के जैन मन्दिर में महाराजा जगतसिंह प्रथम और जगतसिंह द्वितीय के शिलालेख में इसी प्रकार वहां लगने वाले मेले के लिये कुछ विशेष रियायतें देने के उल्लेख हैं । केसरियाजी के मन्दिर के बाहर भी कई सुस्पष्ट लेख लग रहे है जिनमें 2 भीलों और मेवाड़ के महाराणा के मध्य समझौते की प्रतिलिपि खदी हई है।

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