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लेखन उपादान के प्रकारान्तर :
जैसे आजकल छोटी-बड़ी विविध प्रकार की पुस्तकें होती हैं उसी प्रकार प्राचीन काल में 'वविध आकार-प्रकार की पुस्तकें होने के उल्लेख दशवेकालिक सूत्र की हरिभद्रीय टीका, निशीथचूर्ण, वृहत्कल्पसूत्रवृत्ति आदि में पाये जाते हैं। यहां उनका संक्षिप्त परिचय दिया जाता है:
गंडी पुस्तक:-चौड़ाई और मोटाई में समान किन्तु विविध लंबाई वाली ताडपत्रीय पुस्तक को गंडी कहते हैं । इस पद्धति के कागज के ग्रन्थों का भी इसी में समावेश होता है ।
कच्छपी पुस्तक:- जिस पुस्तक के दोनों किनारे संकडे तथा मध्य में कछुए की भांति मोटाई हो उसे कच्छपी पुस्तक कहते हैं । यह आकार कागज के गुटकों में तो देखा जाता है पर ताडपत्रीय ग्रन्थों में नहीं देखा जाता ।
मुष्टि पुस्तकः - जो पुस्तक चार अंगुल लम्बी और गोल हो, मुट्ठी में रख सकने योग्य पुस्तक को मुष्टि पुस्तक कहते हैं । छोटी-मोटी टिप्पणकाकार पुस्तकें व ग्राज की डायरी का इसी में समावेश हो जाता है ।
संपुट फलक :- व्यवहार पीटिका गा. 6 की टीका व निशीथ चूर्णि के अनुसार काष्ठफलक पर लिखे जाने वाले पुस्तक को कहते हैं । विविध यंत्र, नक्शे, समवसरणादि चित्रों को जो काष्ठ संपुट में लिखे जाएं वे इसी प्रकार में समाविष्ट होते हैं ।
छेद पाटी :- थोड़े पन्नों वाली पुस्तक को कहते थे, जिस प्रकार आज कागजों पर लिखी पुस्तकें मिलती हैं । उनकी लम्बाई का कोई प्रतिबन्ध नहीं, पर मोटाई कम हुआ करती थी ।
उपर्युक्त सभी प्रकार विक्रम की सातवीं शताब्दी तक के लिखित प्रमाण से बतलाए हैं। जब कि उस काल की लिखी हुई एक भी पुस्तक ग्राज उपलब्ध नहीं है । वर्तमान में जितने भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, पिछले एक हजार वर्षों तक के प्राचीन हैं। अतः इस काल की लेखन सामग्री पर प्रकाश डाला जा रहा है ।
लिप्यासन: - लेखन उपादान, लेखनपात्र - ताडपत्र, वस्त्र, कागज इत्यादि । जैसा कि ऊपर बतलाया है राजप्रश्नीय सूत्र में इसका अर्थ मषीभाजन रूप में लिया पर यहां ताडपत्र, वस्त्र, कागज, काष्ठपट्टिका, भोजपत्र, ताम्रपत्र, रौप्यपत्र, सुवर्णपत्र, पत्थर यादि का समावेश करते हैं । गुजरात, राजस्थान, कच्छ और दक्षिण में स्थित ज्ञान भण्डारों में जो भी ताडपत्रीय ग्रन्थ उपलब्ध हैं, तेरहवीं शती से पूर्व ताडपत्र पर ही लिखे मिलते हैं । बाद 'कागज का प्रचार अधिक हो जाने से उसे भी अपनाया गया । मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी के समय विक्रम सं. 1204 का 'ध्वन्यालोकलोचन' ग्रन्थ उपलब्ध है, पर टिकाऊ होने के नाते ताडपत्र हो अधिक प्रयुक्त होते थे । महाराजा कुमारपाल और वस्तुपाल तेजपाल के समय में भी कुछ ग्रन्थ कागज पर लिखे गए थे, फिर भी भारत की जलवायु में अधिक प्राचीन ग्रन्थ टिक न रह सकते थे, जबकि जापान में तथा यारकन्द नगर के दक्षिण 60 मील पर स्थित कुगियर स्थान से भारतीय लिपि के चार ग्रन्थ वेबर साहब को मिले, जिन्हें ईसा की पांचवीं शती का माना जाता है । ताडपत्रीय ग्रन्थों में सबसे प्राचीन एक त्रुटित नाटक की प्रति का 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' में उल्लेख किया है जो दूसरी शताब्दी के आसपास की मानी गई है । ताडपत्रों में खास करके श्रीताल के पत्र का उपयोग किया जाता था । कुमारपाल प्रबन्ध के अनुसार श्रीताल दुर्लभ हो जाने से कागज का प्रचार हो गया । पाटण भण्डार के एक विकीर्ण ताडपत्र के उल्लेखानुसार एक पत्र का मूल्य छः ग्राना
पड़ता था ।