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कविजी ने अपने काव्य की अभिधा में पोज, माधुर्य और प्रसाद का अद्भुत मिश्रण घोलकर उसे इतना सरस और रमणीय बना दिया है कि आज वह हजारों श्रोताओं और पाठकों के मानस में . धुल चुका है। इनकी कविता मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा तो देती ही है, जीवन
जगत के वैविध्यपूर्ण वातावरण को उसकी संपूर्णता के साथ चित्रित कर मनुष्य को उसमें जीने की कला भी सिखाती है। कविजी मूलत: मानववादी चेतना के कवि है। आत्म विश्वास,
आत्माभिमान, पूरुषार्थ और मानवीय गरिमा का स्वर उनकी कविताओं में अनेक स्थलों पर मुखरित हुआ है । यथा
आत्म लक्ष्य से मुझे डिगाते हों अरबों प्राघात, बज्र-प्रकृति का बना हुआ हं क्या डिगने की बात ! स्वप्न में भी न बनूंगा हीन ।
----- (संगीतिका , पृ. 168)
अपनी प्रबन्धात्मक कृतियों में वे एक कुशल कथाकार और नाटककार के रूप में भी सामने आते हैं। उनके वर्णन की शैली इतनी विलक्षण है कि पाठक को यह पता नहीं चलता। वह काव्य पढ़ रहा है या देख रहा है। यही कारण है कि आज उनका 'सत्य-हरिश्चन्द्र' काव्य व्याख्यानों का गौरवमय विषय बना हुआ है। यों यह काव्य सत्य की महिमा-प्रतिपादन हेतु राजा हरिश्चन्द्र के चरित्र पर लिखा गया है, पर कवि ने इसमें तारा के चरित्र को उजागर करने में जो प्रयास किया है वह अद्भुत और स्तुत्य है। राज्य-त्याग के बाद अपने पति हरिश्चन्द्र के साथ चलने का आग्रह करती हुई तारा का भव्य चरित्र श्रद्धापूर्वक द्रष्टव्य है:--
कष्ट आपके संग जो होगा, कष्ट नहीं वह सुख होगा,
और आपके पथक् रहे पर सुख भी मुझ को दुख होगा। बिना अापके स्वर्ग लोक को नरक लोक ही जानूंगी, किंतु आपके साथ नरक को स्वर्ग बराबर मानूंगी। सौ बातों की एक बात, चरणों के साथ चलंगी मैं, आप नहीं टलते निज प्रण से कैसे नाथ टलंगी मैं ?
--(सत्य हरिश्चन्द्र, पृ. 89)
भारतीय सहधर्मिणी अर्धा गिनी नारी का कितना तेजस्वी और पावन रूप उभरकर पाया है इन सीधी सरल पंक्तियों में । ऐसे भव्य, प्रेरक और पूज्य स्वरूपों को उभारने में सिद्धहस्त है कवि अमर मुनि ।
पूज्य धन्नाजी की परम्परा को गौरवान्वित करने वाले संत मरुधर केसरी श्री मिश्रीमल जी ने काव्य को मानों अपना अन्तरंग मित्र ही बना लिया है। वे जितने प्रखर संत है उतने ही प्रखर कवि भी है। जैन दर्शन के मिद्धांतों की सरल से सरल शब्दावली में उदाहरणपरक व्याख्या इनके काव्य की विशेषता है। जीवन की क्षणभंगरता को कितने सहज ढंग से विश्लेषित करते है मरुधर केसरी! यथा:--
तन धन परिजन मस्त जवानी बिजुरी के झबकार समानी मिट जासी मझधार, करै क्यों तौफानी ? ग्रौस बिंदु सम काया माया मान मान रे बादल छाया ज्यों पप्पल का पान, नमक जैसे पानी।
--(मधुर स्तवन बत्तीसी, पृ. 4)