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के ठिकाने पहुंच जाता है। उसी प्रकार भव्यात्माओं के लिये मल्यवान आभूषण माने हैं उनके द्वारा गृहीत व्रत। व्रतदेही के अलंकार हैं जो उत्तरोत्तर आत्म ज्योति को तेजस्वी एवं ऊर्ध्वमुखता की ओर प्रेरित करते हैं। कहा भी है--'देहस्य सारं व्रतधारणम' मानव देह की सार्थकता इसी में है कि वह यथाशक्ति सुव्रतों को अपनाकर असंयमी वृत्तियों को नियन्त्रित करे।'
(चिन्तन के आलोक में से उद्धृत, पृष्ठ-37)
उपर्युक्त संत लेखकों के अतिरिक्त कई युवा संत कथा और निबन्ध क्षेत्र में बराबर अपना योगदान दे रहे हैं। विस्तार भय से यहां प्रत्येक के सम्बन्ध में लिखना शक्य नहीं है। इन संत लेखकों में श्री अजितमुनि 'निर्मल', श्री सौभाग्य मुनि 'कुमुद', श्री उदय मुनि, श्री महेन्द्र मुनि 'कमल', श्री राजेन्द्र मुनि, श्री रमेश मुनि (पुष्कर मुनिजी के शिष्य ) श्री मदन मुनि, मुनि श्री नेमिचन्दजी आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
[ख] साध्वी वर्ग:
जैन संतों की तरह जैन साध्वियों की भी साहित्य सर्जना और संरक्षणा में विशेष भूमिका रही है। स्थानकवासी परम्परा में कई ऐसी साध्वियां हुई हैं जिन्होंने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रतिलेखन कर उन्हें सुरक्षित रखा है। ऐसी साध्वियों में आर्या उमा, केसर, गंगा, गुलाबा, चन्दणा, छगना, जेता, ज्ञानी, पन्ना, पदमा, प्रेमा, फूलां, मगना, रुकमा, लाछा, संतोखा, सरसा आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है । महासती भर सून्दरी और जड़ावजी ने काव्य क्षेत्र में सून्दर आध्यात्मिक गीत प्रस्तुत किए हैं। गद्य क्षेत्र में भी ये पीछे न रहीं। आधुनिक युग में शास्त्रीय अध्ययन के साथ-साथ संस्कृत और हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति साध्वी समुदाय में भी विशेष रूप से बढ़ी। कई साध्वियां अच्छी व्याख्याता होने के साथ-साथ सफल लेखिकाएं भी हैं। इनमें साध्वी उमराव कुंवर जी 'अर्चना' और मैना सुन्दरी जी का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
1. साध्वी उमराव कुंवर जी 'अर्चना'--
आप स्थानकवासी समाज की विदुषी विचारक साध्वी हैं। जैन दर्शन व अन्य भारतीय दर्शन का आपका गहन अध्ययन है। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी,गुजराती, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं का आपको अच्छा ज्ञान है। अपने पाद विहार से आपने राजस्थान के अतिरिक्त पंजाब, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश की भूमि को भी पावन किया है। आपके व्यक्तित्व में प्रोज और माधुर्य का सामजस्य है। आपकी प्रवचन शैली स्पष्ट व निर्भीक है।
आपकी कई साहित्यक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। उनमें मुख्य है--हिम और प्रातप, आम्रमंजरी, समाधि मरण भावना, उपासक और उपासना तथा अर्चना और आलोक । 'अर्चना और आलोक' में शास्त्रीय और लौकिक विषयों से सम्बद्ध 21 प्रवचन संकलित है। पौराणिक और आधुनिक जीवन से प्रेरक कथानों और मार्मिक प्रसंगों का उल्लेख करते हुए
आपने प्रवाहमयी भाषा और प्रोजस्वी शैली में अपने विषय का प्रतिपादन किया है। आपके विचारों में उदारता और चिन्तन में नवीन दृष्टि का उन्मेष है। धर्म की विवेचना करते हुए आपने लिखा है--
'धर्म के दो रूप हैं--पहला मनः शद्धि और दूसरा बाह्य व्यवहार । मन की शद्धि से तात्पर्य है-मन में अवतरित होने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मोह आदि मनोविकारों को क्षमा, नम्रता, निष्कपटता, संतोष, संयम आदि आत्मगुणों में परिणत कर लेना तथा बाह्य व्यवहार का अर्थ है-आत्म गुणों को जीवन-व्यापार में क्रियान्वित करने के लिए सामायिक, संवर, प्रतिक्रमण तथा व्रत-उपवास आदि क्रियाएं करना। मन को विकारों से मुक्त करना विचार