Book Title: Rajasthan ka Jain Sahitya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Devendraraj Mehta

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Page 430
________________ 375 हितोपदेशामृत ( 125 3) वसुदेवहिण्डो, शान्तिनाथ चरित (देवचन्द्रसूरि), नैषधटीका (विद्याधर) मुद्राराक्षस नाटक (विशाखदत्त), की कुछ ऐसी महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियां हैं जो अन्यत्र नहीं मिलती। उक्त भण्डार के अतिरिक्त जैसलमेर में (पंचानों शास्त्र भण्डार, बडा उपाधय ज्ञान भण्डार), तपागच्छीय ज्ञान भण्डार, लोकागच्छीय ज्ञान भण्डार, थारूसाह ज्ञान भण्डार और हैं जिनमें भी हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का अच्छा संग्रह है । (2) भट्टारकीय ग्रन्थ भण्डार, नागौर (राजस्थान) : नागौर राजस्थान के प्राचीन नगरों में से है । प्राचीन लेखों में इसका दूसरा नाम नागपुर एवं अहिपुर भी मिलता है। नागपुर (नागौर) का सर्व प्रथम उल्लेख जयसिंह सूरि की धर्मोपदेशमाला (9 वीं शताब्दी) में मिलता है। 11 वीं शताब्दी में जिनवल्लभ सूरि एवं जिनदत्तसरि ने यहां विहार किया था। 15 वीं शताब्दी में होने वाले पं. मेधावी ने अपने धर्मोपदेश श्रावकाचार ( 1484) में इसे सपादलक्ष प्रदेश का सर्वाधिक सुन्दर नगर माना है। सन् 1524 में भट्टारक रत्नकीति ने यहां भद्रारकीय गादी के साथ ही एक वहद ज्ञान भण्डार की स्थापना की थी। शताब्दियों से नागौर जैनों के दोनों ही संप्रदायों का प्रधान केन्द्र बना रहा है । शास्त्र भण्डार एवं भट्टारक गादी की स्थापना के पश्चात् यहां कितने ही भट्टारक हुए जिनमें भुवनकीर्ति (सन् 1529) धर्मकीर्ति (सन् 1533) विशालकीर्ति (सन् 1544) लक्ष्मीचन्द्र (सन् 1554) यशःकोति (सन् 1615) भानुकीर्ति (सन् 1633) के नाम उल्लेखनीय हैं। यहां के अन्तिम भट्टारक भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति थे जिनका कुछ ही वर्ष पहिले स्वर्गवास हुअा था । हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह की दृष्टि से यह भट्टारकीय शास्त्र भण्डार अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यहां करीब 14 हजार पाण्डुलिपियों का संग्रह है जिनमें एक हजार से अधिक गटके हैं। जिनमें एक एक में ही बीसों पच्चीसों लघु ग्रन्थों का संग्रह होता है। भण्डार में प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में निबद्ध कृतियों का उत्तम संग्रह है, जो सभी विषयों से सम्बन्धित है। अधिकांश पाण्डुलिपियां 14 वीं शताब्दी से लेकर 19 वीं शताब्दी तक की है जिनसे पता चलता है कि गत 100 वर्षों में यहां बहुत कम संख्या में ग्रन्थ लिखे गये। प्राकृत भाषा के ग्रन्थों में प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार की यहां सन 1303 की पाण्डुलिपि हैं इसी तरह मूलाचार की सन् 1338 की पाण्डुलिपि है। इसी तरह अपभ्रंश का यहां विशाल साहित्य संग्रहात है। कुछ अन्यत्र अनुपलब्ध ग्रन्थों में वरांग चरिउ (तेजपाल) वसुधीर चरिउ (श्री भूषण) सम्यकत्व कौमुदी (हरिसिंह) णेमिणाह चरिउ (दामोदर) के नाम उल्लेखनीय हैं । संस्कृत एवं हिन्दी भाषा की भी इसी तरह सैंकड़ों पाण्डुलिपियां यहां संग्रहीत हैं जिनका अन्यत्र मिलना दुर्लभ सा है। ऐसी रचनाओं में भाउकवि का नेमिनाथरास (16 वीं शताब्दी) जगरूप कवि का जगरूपविलास, कल्ह की कृपणपच्चीसी, मण्डलाचार्य श्री भ षण का सरस्वती लक्ष्मी संवाद, सुखदेव का क्रियाकोश भाषा, मानसागर की विक्रमसेन चौपाई के नाम उल्लेखनीय हैं। 17 वीं एवं 18 वीं शताब्दी में निबद्ध लोकप्रिय हिन्दी काव्यों का यहां अच्छा संग्रह है । जयपुर नगर के शास्त्र भण्डार : जयपुर नगर यद्यपि प्राचीनता की दृष्टि से 250 वर्ष से ही कम प्राचीन है लेकिन उत्तरी भारत में देहली के अतिरिक्त जयपुर ही दिगम्बर जैन समाज का प्रमुख केन्द्र रहा है और

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