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4. प्राचार्य श्री प्रानन्द ऋणि जी
आप प्रखर चिन्तक, मधुर व्याख्याता और विशिष्ट साधनाशील संत हैं। अपने सुदीर्घ साधनामय जीवन में जहां पाप अात्म कल्याण की ओर प्रवृत्त रहे वहीं जनकल्याण की ओर भी सदैव सचेष्टरहे। सरलता के साथ भव्यता, विनम्रता के साथ दढ़ता और ज्ञान-ध्यान के साथ संघ-संचालन की क्षमता प्रापके व्यक्तित्व को विशेषताएं हैं।
यों अापकी जन्मभमि और कर्मभमि महाराष्ट है पर सन्त किसी प्रदेश विशेषनबन्धे हुए नहीं रहते।श के कई भ भाग यापकी देशना से लाभान्वित हुए है। राजस्थान भी उनमें से एक है । ब्यावर, उदयपुर, भीलवाडा, माथद्वारा, जोधपुर, बड़ी मादड़ी, बदनौर, प्रतापगढ़, जयपुर, कुशलपुरा आदि स्थानों पर बातुमास कर अपने राजस्थान-बासियों को साध्यात्मिक प्रेरणा और सामाजिक नव-चेतना प्रदान की है। श्री वर्धमान स्थानकवासोश्रमण संघ के प्राचार्य के रूप में प्रापका व्यक्तित्व बहमुखी एवं महान् है ।
आपकी प्रेरणा से देश के विभिन्न भागों में कई संस्थाओं का जन्म हुअा। जिनमें मुख्य हैंश्री त्रिलोकरत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बाई, पाथर्डी, जैन धर्म प्रचारक संस्था, नागपुर, श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति प्रादि ।
आचार्य श्री का प्राकृत, संस्कृत, मराठी, हिन्दी सादि भाषाओं पर पूर्ण अधिकार है। आपने कई ग्रन्थों का मराठी में अनुवाद किया है जिनमें मुख्य है.--यात्मोन्नति चा सरल उपाय, जैन धर्मा विषयी अजैन विद्वाना अभिप्राय (दो भाग), जैन धर्माचे हिसा तत्त्व, वैराग्य शतक, उपदेश रत्नकोष आदि। हिन्दी आवामी यापकी कई पुस्तके हैं। ऋषि सम्प्रदाय का इतिहास में आपका इतिहासज्ञ और गवेषक का रूप सामने आया है। ज्ञान-कुंजर दीपिका और अध्यात्म दशहरा (श्री त्रिलोक ऋषि प्रणीत ) में आपका विवेचक और व्याख्याकार का रूप प्रकट हुना है। त्रिलोक ऋषि , रत्न ऋषि, देवजी ऋषि आदि के पापने जीवन चरित्र भी लिखे हैं। पाप धीर, गम्भीर और मधुर व्याख्याता हैं। अापकी वाणी में विचारों की स्थिरता, निर्मलता और भद्रता का रस है। आगम और पासमेतर साहित्य का आपका गढ़ और व्यापक अध्ययन है। इसकी झांकी आपके प्रवचनों में सर्वत्र देखी जाती है। आपके प्रवचनों के 'प्रानन्द-प्रवचन' नाम से छह भाग प्रकाशित हुए है। जीवन को सदाचारनिष्ठ बनाने में ये प्रवचन बड़े सहायक हैं। इनमें प्रयुक्त सूक्तियां हृदयस्पशी हैं तथा स्थान-स्थान पर आये हुए प्रासंगिक दृष्टान्त और कथा-प्रसंग प्रभावकारी हैं। एक उदाहरण देखिये ---
"बीज छोटा सा होता है किन्तु उसी के द्वारा एक बड़ा भारी वृक्ष निर्मित हो जाता है। कहां बड़ का छोटा सा वीज केवल राई के समान और कहां विशालकाय तरुवर, जिस पर सैकड़ों पक्षी बसेरा लेते हैं तथा सैकड़ों थके हाए पसाफि जिसकी शीतल छाया में रुक विश्राम लेकर अपने को तरोताजा बना जाते है। छोटे गे बीज का महत्व बड़ा भारी होता है क्योंकि उसके अन्दर महान् फल छिपा हुया होता है। एक सुन्दर य में कहा भी है -----
बीज बीज ही नहीं, ताज में तरुबर भी है। मनुज मनुज ही नहीं, मनुज में ईश्वर भी है ।
कितनी यथार्थ बात है। एक बीज केवल वीज ही नहीं है, वह अपने में एक विशाल वृक्ष समाये हुए है, जो सींचा जाने पर संसार के समक्ष आ जाता है। इसो प्रकार मनुष्य केवल नामधारी मन प्य ही नहीं है, उसमें ईश्वर भी है जो आत्मा को उमति की ओर ले जातामा अपने सदृश बना लेता है।
(मानन्द-प्रवनन, भाग-2, पृष्ट-371 से उदधृत)