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राजा श्रेणिक, नौवें भाग में महामन्त्री अभय कुमार, दसवें भाग में महावीर के सुप्रसिद्ध दस श्रावकों, ग्यारहवें भाग में अन्य प्रसिद्ध श्रमणोपासकों तथा बारहवें भाग में जम्बू कुमार की कथायें हैं। सभी कथाओं की शैली रोचक, प्रवाहपूर्ण और आकर्षक है ।
10. पं. मुनि श्री हीरालाल जी म.--
आप समाज के प्रोजस्वी व्याख्याता और शास्त्र मर्मज्ञ विद्वान् संत हैं। आपके व्याख्यान अत्यन्त मनोहारी, सारगभित और हृदय को पिघला देने वाले होते हैं। आत्मोत्थान के साथ समाज में नव चेतना जाग्रत करना आपका मुख्य उद्देश्य रहता है। शास्त्रीय दुरुह विषय को भी आप लोक कथाओं, लोक गीतों, महापुरुषों की घटनाओं, च टकलों आदि का पट देकर लोकभोग्य बना देते हैं। हीरक प्रवचन' नाम से दस भागों में आपके प्रवचन प्रकाशित हुए हैं। आपकी भाषा शैली देहाती संस्कार लिए हुए है । घरेल वातावरण से युक्त होने के कारण वह अत्यन्त सरल और सहज बन गई है। एक उदाहरण देखिए--
'देखो! इस संसार में ऐसे तो अनेक माताएं हैं जो अनेकों पूत्रों को जन्म देती है परन्तु उसी माता का पूत्र को जन्म देना सार्थक है और वही माता इस संसार में धन्यवाद की पात्र है जिसका बेटा दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की भी पाहुति दे डालता है। परन्तु वही वीर पुत्र दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाता है जिसके हृदय में कोमलता और सहृदयता होती है। एक कठोर हृदय में दया का निवास नहीं रहता। ज्ञानी पुरुषों ने बताया है कि मानव वही है जिसके हृदय में निम्न चार बातें पाई जाती है अर्थात मानवता प्राप्त करने के लिए एक मानव के हृदय में भद्रिकता, विनय संपन्नता, दयालु ता और अमत्सरता का होना परमावश्यक है।'
(हीरक प्रवचन भाग 1 से उद्धृत, पृष्ठ-161) 11. श्री पुष्कर मुनि
आप समाज के चिन्तनशील मनीषी सन्त है। साहित्य और शिक्षण के प्रचार-प्रसार में आपका विशेष योगदान रहा है। आपके प्रवचनों के प्रमुख संकलन हैं 'साधना का राजमार्ग और जिन्दगी की मुसकान'। 'साधना का राजमार्ग', में सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, और सम्यक चारित्र तथा उसके प्रमुख तत्त्वों का सरल ढंग से शास्त्रसम्मत विवेचन प्रस्तुत किया गया है। जिन्दगी की मुस्कान' में जीवन की जीवन्तता बनाये रखने वाले मल तत्त्वों को लेकर भावात्मक शैली में बहुत ही मर्मस्पर्शी विचार प्रकट किए गये हैं। भावों की गम्भीरता के साथ भाषा की सजीवता देखते ही बनती है। एक उदाहरण देखिए --
'हां, तो जीवन का सही विकास करना हो तो गति-प्रगति करिये। 'चर' धातु से ही आचार, विचार, संचार, प्रचार, उच्चार आदि शब्द बनते हैं। इन सबके मूल में चलना है, 'चर' क्रिया है। आप भी अपने जीवन में 'चर' को स्थान दीजिए, घबराइ , आपका व्यक्तित्व चमक उठेगा, आपका विकास सर्वतोमखी हो सकेगा, आपकी प्रतिभा चहंमर्ख उठेगी, आपके मनमस्तिष्क का प्रवाह इसी ओर मोडिये। श्रमण संस्कृति का आकर्षण इसी ओर रहा है। चरैवेति, चरवति, चले चलो बढ़े चलो ।
(जिन्दगी की मुस्कान से उद्धृत, पृष्ठ-149) 12. श्री देवेन्द्र मुनि--
आप सरस व्याख्याता, सफल लेखक और गढ गवेषक विद्वान् संत हैं। आपने विद्वानों और सामान्य पाठकों दोनों के लिए विपुल साहित्य का निर्माण किया है। भगवान महाबीर एक