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हिन्दी जैन काव्य-4
-डॉ. मूलचन्द सेठिया
प्राचार्य भीखणजी द्वारा प्रवर्तित तेरापंथ की साहित्य साधना के अनेक आयाम हैं, जिनमें हिन्दी काव्य-रचना नवीनतम और अन्यतम है। प्रथमाचार्य भीखणजी और चतुर्थ प्राचार्य जीतमलजी राजस्थानी भाषा के महान कवि थे, जिन्होंने दर्शन और अध्यात्म के निगूढ तत्वों को काव्य के कलात्मक परिधान में जन-मन के सम्म ख उपस्थित किया था। उनके काव्य में प्रबोधन के स्वर है, जो व्यक्ति को प्रमाद से मुक्त कर आध्यात्मिक जागरण के नव-प्रभात में प्रांखें खोलने के लिए प्रेरित करते हैं। संस्कृत काव्य-रचना का श्रीगणेश जयाचार्य के युग में हो गया था, यद्यपि इस धारा का वेगमय प्रवाह अष्टमाचार्य काल गणी के युग में दृष्टिगोचर होता है। परन्तु, हिन्दी काव्य-रचना का प्रारम्भ तो वर्तमान प्राचार्य तुलसी गणी की प्रेरणा से विक्रम की इक्कीसवीं शताब्दी के साथ ही हमा है। प्राचार्य श्री तुलसी की प्रेरणा और प्रोत्साहन से ही तेरापंथ के साधु और साध्वी या समाज में अनेकानेक लब्धप्रतिष्ठ कवियों का साहित्य सृजन उपलब्ध होता है। आचार्यप्रवर ने हिन्दी को कई महत्वपूर्ण काव्य ही नहीं दिए हैं, अनेक प्रतिभाशाली कवि भी प्रदान किए हैं।
प्राचार्य श्री तुलसी के काव्य-सजन को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम प्रबन्ध-काव्य (जिनमें 'भरतमुक्ति' और 'आषाढभूति' प्रधान हैं) और द्वितीय मुक्तक रचनाएं जो अणुव्रत गीत' में संकलित हैं। 'भरत मुक्ति' प्राचार्य श्री तुलसी का प्रथम प्रबन्ध काव्य है। आपके ही शब्दों में प्रस्तुत काव्य-निर्माण के मख्यतया दो उद्देश्य थे-1. साध-संघ में हिन्दी काव्य की धारा को प्रवाहित करना, 2. ऋषभपुत्र भरत चक्रवति को काव्य-शैली में प्रस्तुत करना।' भरत और बाहुबली का युद्ध एक ऐसा कथावृत्त है, जो पूर्णतया इतिहाससिद्ध नहीं होते हुए भी अपने आप में भारतीय समाज-विकास के अनेक सूत्रों को समेटे हुए है। यह प्रबन्ध-काव्य तेरह सर्गों में विभक्त है और इसमें शान्त, वीर, रोद्र और बीभत्स आदि अनेक रसों का पुष्ट परिपाक हुआ है। इसमें जहां एक ओर राजप्रासादों में चलने वाले छल-छन्दों का चित्रण किया गया है, वहां दूसरी ओर वन्य जीवन की शान्त मधुरिमा भी शब्दों में साकार हो गई है। तेरहवें सर्ग में भरत का चरित्र शरदाकाश की भांति नितान्त निर्मल होकर निखर उठा है, परन्तु पूर्ववर्ती सर्गों में जीवन के अनेक प्रारोहों और अवरोहों का सविस्तार वर्णन किया गया है। इस काव्य में जीवन की विविधता, विपूलता और विराटता का अद्भुत संगम हुआ है। यद्ध-वर्णन में कवि की लेखनी ने कहीं-कहीं काव्योत्कर्ष के उत्कृष्ट उदाहरण उपस्थित किये हैं । क्रोधोद्धत बाहुबली का यह चित्र अपने आप में अपर्व है
मंदराद्रि विचलित हुआ अविचल धृति को छोड़ मानो अम्बुधि अवनि पर झपटा सीमा तोड़ । महा भयंकर रूप से प्रकुपित हुआ कृतान्त लगता ऐसा सन्निकट है अब तो कल्पान्त ।
'आषाढभूति' एक चरितात्मक प्रबन्ध-काव्य है। प्राचार्य आषाढभूति, जिनकी वक्तृता के प्रभाव से उज्जयनी नगरी झूम उठी थी, परिस्थितियों की विडम्बनावश छह सुकुमार बालकों का वध कर डालते हैं। अन्ततः उनका प्रिय शिष्य विनोद देवयोनि से पाकर अपने पथभ्रष्ट गुरु को