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प्रबोधित करता है और उनकी विचलित आस्तिकता को पूनः प्रतिष्ठित करता है। 'आषाढभूति के सम्पादकों ने इसे 'नास्तिकता पर आस्तिकता की विजय का अभिव्यंजक प्रबन्ध काव्य' कहा है, जो उचित ही है। तात्विक विषयों के प्रतिपादन में कवि ने कहीं-कहीं दार्शनिक की मुद्रा धारण कर ली है।
प्राचार्य श्री तुलसी के ये दोनों प्रबन्ध-काव्य सामान्य प्रबन्ध काव्यों से भिन्न कोटि इनमें साहित्यिकता की अपेक्षा लोकतात्विकता का प्राधान्य है। इनकी रचना नाना रागोपेत गीतिकात्रों के संकलन के रूप में की गई है। ये काव्य पाठय से अधिक गेय हैं और इनमें वैयक्तिकता की अपेक्षा सामहिकता का स्वर अधिक प्रबल है।
'अणुव्रत गीत' में अनेक शैलियों और रागिनियों में लिखी हुई बहुविध गीतिकाएं संकलित है। केवल साहित्यिक दष्टि से इनका मूल्यांकन करना असमीचीन होगा क्योंकि ये स्पष्टतः जन-जागरण एवं नैतिक प्रबोधन के प्रचारात्मक उद्देश्य से लिखी गई है। फिर भी, कतिपय गीतिकाओं में भावना और अभिव्यंजना का स्वाभाविक सौन्दर्य दृष्टिगत होता है । यथा :--
छोटी-सी भी बात डाल देती है बड़ी दरारें, गलतफहमियों से खिच जाती प्रांगन में दीवारें। इसका हो समुचित समाधान तो मिट जाए व्यवधान रे। बड़े प्रेम से मिल जुल सीखें मंत्री मंत्र महान् रे ।
प्राचार्य प्रवर ने अनेक गीतिकाओं में अपने आराध्य देवों के प्रति भावभरी श्रद्धांजलियां अर्पित की हैं। वस्तुतः प्राचार्य श्री तुलसी कवि होने के पूर्व एक युगप्रधान धर्माचार्य, महान् अध्यात्म-साधक और नैतिक जागरण के अग्रदत हैं। भरतमक्ति की भमिका में आपने लिखा भी है ‘कविता की प्रसन्नता का प्रसाद पाने के लिए मैंने कभी प्रयत्न नहीं किया, उसका सहवतित्व ही मुझ हितकर लगा ।'
‘ार पार' में संकलित सेवाभावी म नि श्री चम्पालालजी की अधिकांश रचनाएं राजस्थानी भाषा में हैं। परन्तु, इस संकलन में कतिपय हिन्दी रचनाएं भी हैं। चम्पक मनि की रचनाओं में उनका सरल-निश्छल व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित हुआ है। अभिव्यक्ति की सरलता में भी एक स्वाभाविक सुन्दरता है:
उच्च शिखर से गल-गल कर, कल-कल कर निर्झर बहता बुरा-भला यश-अपयश सुनता, विविध ठोकरें सहता। तुम करो न मन को म्लान, मिलेंगे प्यासों को प्रिय प्राण
नीर ! तुम ढलते ही जाग्रो ॥
मनि श्री नथमलजी जैन दर्शन के एक दिग्गज विद्वान और महान अध्यात्म-साधक हैं। उन्होंने धर्म, दर्शन, अध्यात्म और न्याय विषयक अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। परन्तु, वे जीवन के अनतिगंभीर क्षणों में अपनी मर्मान भूतियों को काव्य के माध्यम से भी अभिव्यक्त करते रहे हैं। उन्होंने स्वयं लिखा है: "कविता मरे जीवन का प्रधान विषय नहीं है। मैंने इसे सहचरी का गौरव नहीं दिया। मुझे इससे अनुचरी का-सा समर्पण मिला है।" 'फूल और अंगारे' तथा 'गूंजते स्वर बहरे कान' में मुनि श्री की कविताए संकलित है। मुनिश्री ने अपने काव्य के द्वारा उस सहजानन्द को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है, जो मानस की परतों के नीचे सोया हुआ रहता है। इस सहजानन्द के मल में जीवन के प्रति समता का दष्टिकोण है। इस समत्व बुद्धि से प्रेरित होकर ही आप यह कह सके है:--
कोंपल और कुल्हाड़ी को भी साथ लिए तुम चल सकते हो ।