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सामाजिक कुरीतियों और शोषण के आधारभूत कारणों पर इस संत-कवि की लेखनी ने कठोर प्रहार किए हैं। दहेज, बाल-विवाह, छाछत, जाति-भेद, शोषण, काला-व्यवसाय, परिग्रह जैसी रूढ़ियों और प्रवत्तियों पर कवि ने सैकड़ों रचनाएं की हैं। इन रचनायों ने समाज की विचारधारा को ही प्रभावित नहीं किया, उसे बहुत कुछ मोड़ा भी है। 'जीवन में यदि आचार न हो तो विचार किस काम का? कर्म की प्रवृत्ति न हो तो ज्ञान के संग्रह का क्या लाभ ?' (मन के मोती, पृ.93) कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहने का भाव तो उनकी रचनाओं में सर्वत्र ही देखा जा सकता है।
आधुनिक युग विज्ञान का युग है, भौतिक उन्नति और उपलब्धियों का युग है। इसे नकारा नहीं जा सकता। जैन साधु भी वर्तमान जीवन की इस वस्तुस्थिति की उपेक्षा नहीं करते, परन्तु वे ऐसे विज्ञान का कभी समादर या समर्थन नहीं कर सकते, जिसमें धर्म की प्रेरणा के लिए किंचित् भी अवकाश न हो। ऐसे विज्ञान से मनुप्यता के कल्याण की कामना नहीं की जा सकती। कवि ने कितने प्रभावी ढंग से अपने इस दष्टिकोण को अभिव्यक्त किया है :
"धर्म शून्य विज्ञान प्रेम के पुष्प न कभी खिला सकता, विद्युत दे सकता किन्तु मैत्री के दीप न कभी जला सकता।"
--(मन के मोती, पृ. 66)
कर्मवाद जैन दर्शन का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। मानव-जीवन की नियति कर्माधीन है। कर्म ही सुख के आधार हैं और कर्म ही दुःख के कारण होते हैं। शुभ और अशुभ कर्म ही जीवन में उजियाली और कालिमा लाते रहते हैं। मानव का उद्धार या जीवात्मा की मक्ति तब तक संभव नहीं होती जब तक कि उसके सब कर्म, शभ-अशभ, क्षय नहीं हो जाते । जिस क्षण ऐसा होता है, व्यक्ति व्यक्तित्व बन जाता है व आत्मा परमात्मा में बदल जाती है। परन्तु जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक तो मनुष्यों को अपने कर्मानसार सुख-दुःख के साथ प्रांखमिचौनी करनी ही होती है। मानव जीवन के इस सत्य को व्यक्त करते हैं मुनि महेन्द्र 'कमल' इन शब्दों में:--
"पूर्व जन्म के शुभ कर्मों से कोई मार नहीं सकता, अशुभ कर्म हों यदि प्राणी के, कोई तार नहीं सकता। भोग बिना कर्म फल, सुनिए होता नहीं भव-भ्रमण विनाश, यहां कर्म ही सूख पहंचाते और कर्म देते संत्रास ।"
--(भगवान महावीर के प्रेरक संस्मरण, पृ. 14)
समाजोद्धारक जै. रत्न दिवाकर मुनि श्री चौथमलजी की शिष्य-परम्परा में अनेक कवि-रत्न हैं। उनमें उल्लेखनीय हैं श्री केवल मनि। अपने गुरु की भांति ही इन्होंने भी समाज के हर अंग के संपूर्ण विकास के लिए उद्बोधन दिया है, साहित्य-सृजन किया है । इनके कवि-रूप में इनका गायक-रूप पूरी तरह घुला हुआ है । इनकी माधुर्य-युक्त वाणी समाज के लोगों पर जादू सा असर डालती रही है। इनकी रचनाएं गेय होने के कारण अधिक लोकप्रिय और ग्राह्य सिद्ध हुई हैं। इनकी मुख्य रचनाएं हैं--मेरे गीत, कुछ गीत, मधुरगीत, सुन्दरगीत, सरस गीत, गीत लहरियां, गीत सौरभ, महकते फूल, मेरी बगिया के फूल, वीरांगद सुमित्र-चरित्न, गीत-गुजार ग्रादि। इनकी कविताओं की भाषा सीधी सरल हिन्दी है। जैन धर्म के सिद्धान्तों के प्रचार के साथ-साथ इनकी रचनाओं में समाजोद्धार और राष्ट्रोत्थान का स्वर भी मुखरित हुआ है। राष्ट्र की महत्ता स्वीकारते हुए वे कहते हैं:---
“कुटुम्ब व्यक्ति से ऊंचा है और जाति कुटुम्ब से बढ़ कर । प्रान्त जाति से ऊपर लेकिन राष्ट्र पर सब न्योछावर ।"
-(गीत-गुंजार, पृ. 212)