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श्री रत्नविजय जी के पास पुनः दीक्षा ग्रहण की तथा रत्नविजय जी की सूचनानुसार उपकेशगच्छ के अनुयायी बने। आचार्य पद के समय इनका नाम देवगुप्तसूरि रखा गया। आपकी छोटी-मोटी शताधिक रचनायें रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला से प्रकाशित हुई हैं। जैनागमों का संक्षिप्त सार 'शीन बोध' के नाम से कई भागों में प्रकाशित हया है। छोटी-छोटी कथाओं के 51 भाग भी उल्लेखनीय हैं। आपका सब से बड़ा ग्रन्थ “पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास" है। वैसे मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास, श्रीमान् लोकाशाह, जैन जाति महोदय प्रमुख रचनायें हैं । प्रकाशित विशिष्ट कृतियां निम्नलिखित हैं:
भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का पार्श्व पट्टावली)
इतिहास
मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास जैन जातियों का प्राचीन इतिहास
कापरडा तीर्थ का इतिहास
प्रोसवाल जाति का इतिहास
श्रीमान् लोकाशाह प्राचीन जैन इतिहास संग्रह मा. 1-16 जैन जाति महोदय जैन जाति निर्णय
आगम निर्णय मुखपट्टी मीमांसा कथा संग्रह मा. 1-51 आदि ।
ओसवाल जाति का समय निर्णय
बत्तीस सूत्र दर्पण
शीघ्रबोध
51. जिनमणिसागरसूरि
आप खरतरगच्छ के महोपाध्याय सुमतिसागर जी के शिष्य थे। पापका जन्म सं. 1944 बांकडिया बडगांम और दीक्षा सं. 1960 में, प्राचार्य पद सं. 2000 और स्वर्गवास 2008 मालवाडा में हया था। जैनागमादि ग्रन्थों का आपने विशिष्ट अध्ययन किया और उस समय के विवादास्पद प्रश्नों पर विस्तार से प्रकाश डाला। वैसे आप सरल प्रकृति और मध्यस्थ प्रकृति के थे । आपकी बहुत बड़ी भावना रही थी कि समस्त जैनागम हिन्दी में सानुवाद प्रकाशित करवाये जावें, किन्तु आपके गरु श्री के नाम से स्थापित सूमति सदन, कोटा से कुछ ही ग्रन्थ प्रकाशित किये जा सके। कोटा जैन प्रिन्टिग प्रेस की स्थापना भी इसी उददेश्य से की गई थी। अापकी निम्नलिखित रचनायें प्रकाशित हैं :-- वृहत्पर्युषणा निर्णय,
षट् कल्याणक निर्णय देव द्रव्य निर्णय,
आगमानुसार मुहपति का निर्णय, साध्वी व्याख्यान निर्णय,
देवार्चन एक दृष्टि, क्या पृथ्वी स्थिर है ?,
कल्पसूत्र अनुवाद, दशयकालिक सूत्र अनुवाद,
अन्तकृद्दशा सूत्र अनुवाद अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र भावानुवाद, साधु पंचप्रतिकमण सूत्र अनुवाद ।