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(1) निबन्ध-प्रवचन :-गद्य विधामों में सर्वाधिक शक्तिपूर्ण मौर प्रसरणशील विधा निबन्ध है। साहित्य की अन्य विधामों में तो गम को भाषा एक माध्यम मात्र का काम करतो है किन्तु निबन्ध में वह अपनी पूर्ण शक्ति वसामय के साथ प्रकट होती है, इसीलिये निबन्ध को गद्य की कसोटी कहा गया है। यों निबन्ध का निश्चित विषय नहीं होता। सभी प्रकार के विषय निबन्ध के लिये उपयोगी हो सकते हैं किन्तु शैली को रमणीयता और सरसता.. निबन्ध का अनिवार्य अंग है।
विषय की दृष्टि से निबन्ध सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, माथिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि अनेक प्रकार के हो सकते हैं फिर भी विद्वानों ने स्थल रूप से निबन्धों के पांच प्रकार बताये हैं-वर्णनात्मक, विवरणात्मक, भावात्मक, विचारात्मक और हास्य-व्यंग्यात्मक/वर्णनात्मक निबन्धों में दश्य जगत की किसी वस्तु या स्थल का सजीव वर्णन किया जाता है। विवरणात्मक निबन्ध में विचारों को प्रस्तुत करने का ढंग सूच्यात्मक होता है । इनमें इतिवृत्तात्मकता एवं कथात्मकता के तत्व भी समाविष्ट रहते है। भावात्मक निबन्धों में बौद्धिकता की अपेक्षा अनुभूति तत्व की प्रधानता रहती है। यहां लेखक के हृदय से निसृत भावधारा ही विचार सूत्र का नियन्त्रण करती है। विचारात्मक निबन्धों में हृदय के स्थान पर बुद्धि की प्रधानता होती है। इनमें अध्ययन की व्यापकता, गम्भीरता और भाषा की समाहार-शक्ति अपेक्षित होती है। हास्य-व्यंग्यात्मक निबन्धों में विषय हल्के और शैली सरस किन्तु तीखी होती है। ऐसे निबन्ध एक मोर जोवन की ऊब और थकान को दर कर स्वस्थ मनोरंजन की पूर्ति करते हैं तथा दूसरी भोर समाज, धर्म, प्रशासन मादि में व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों और दुरवस्था पर तोव चोट करते हैं।
उपर्युक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में जब हम राजस्थान के जैन निबन्धकारों पर दष्टिपात करते हैं तो निबन्ध कला पर खरे उतरने वाले निबन्धों की संख्या विरल है। यों जैन पत्रपनिकायों के माध्यम से प्रति माह संपादकीय टिप्पणियों भोर धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक सांस्कृतिक निबन्धों के रूप में काफी सामग्री छपती रहती है पर इनमें से अधिकांश सामान्य कोटि के लख होते हैं। भावात्मक और हास्य-व्यंग्यात्मक निबन्ध तो बहुत ही कम हैं। अधिकांश निबन्ध जैन तत्व ज्ञान से सम्बन्धित होते हैं। सामाजिक भावभभि को लेकर लिखे जाने वाले निबन्धों की संख्या भी पर्याप्त है। निबन्ध-लेखन में गहस्थों का ही विशेष योगदान रहा है। जैन-संत अपनी मर्यादा में बंधे रहने के कारण सामान्यतः सीधे निबन्ध नहीं लिखते।
निबन्ध साहित्य की इस कमी को पूरा किया है प्रवचन साहित्य ने। निबन्ध पौर प्रवचन का मूल मन्तर इसकी रचना प्रक्रिया में है। निबन्ध सामान्यतः लेखक स्वयं लिखता है या बोलकर दूसरे से लिखवाता है पर प्रबचन-एक प्रकार का प्राध्यात्मिक भाषण है जो श्रोता मण्डली में दिया जाता है। यह सामान्य व्यक्ति द्वारा दिया गया सामान्य भाषण नहों। किसो ज्ञानो, साधक एवं अन्तर्मुखी चिन्तनशील व्यक्ति की वाणी हा प्रवचन कहलाती है। इसमे एक पद्धत बल, विशिष्ट प्रेरणा मोर मान्तरिक साधना का चमत्कार पिाहता है। श्रोता के हृदय को सीधा स्पर्श कर उसे प्रान्दोलित-विलोडित करने की क्षमता उसमें निहित है,ती है। जैन संत-सतियां आध्यात्मिक-पथ पर बढ़ने वाली जागरूक प्रात्माएं हैं। उनकी अनुभूत वाणी प्रवचन की सच्ची प्राधिकारिणी है।
जैन धर्म लोक-धर्म है व लोक-भूमि पर प्रतिष्ठित है। लोक-मानस तक अपनी बात पहुंचाने के लिये जैनाचार्य और जैन संत लोक भाषा में ही अपना प्रवचन देते रहे हैं। स्वतन्त्रता के पूर्व तक राजस्थान के अधिकांश जैन सांघराजस्थानी में ही प्रवचन दिया करते थे पर ज्यों ज्यों हिन्दी का प्रचार-प्रसार बढ़ता गया, उन्होंने हिन्दी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। चातुर्मास काल में तो प्रतिदिन नियमित रूप से व्यांच्यान होते ही हैं, उस के बाद भी शेषकाल