________________
228
15 वीं शताब्दी से तुकांत और साहित्यिक गद्य भी प्रचुर परिमाण में प्राप्त है । सं. 1478 में 'पृथ्वीचन्द्र चरित्र' माणिक्यचन्द्रसूरि ने गद्य में बनाया । उसका नाम ही इसीलिए 'वाग्विलास' रखा गया है कि उसमें कथा तो बहुत थोड़ी है, वर्णन प्रचुर है । यहां वर्षाकाल का कुछ वर्णन नीचे दिया जा रहा है
"हिव ते कुमार, चड़ी यौवन भरि परिवरी परिकरि, क्रीडा करइ नवनवी परि । इसिई श्रवसरि प्राविउ प्राषाढ, इतर गुणि संबाड । काटइयइ लोह, घाम तणउ निरोह । छासि घाटी, पाणि वीयाइ माटी । विस्तरिउ वर्षाकाल, जे पंथी तणउ काल, नाठउ दुकाल । जीणिइ वर्षाकालि मधुरध्वनि मेह गाजर, दुर्भिक्ष तणा भय भाजइ, जाणे सुभिक्ष भूपति प्रावतां जयढक्का वाजइ । चिहुं दिसी बीज झलहलइ, पंथी घर भणी पुलइ । विपरीत आकाश, चंद्र सूर्य परियास । राति अंधारी, लवइं तिमिरी । उत्तरनऊ ऊनयण, छायउ गयण । दिसि घोर, नाच मोर । सघर, वरसइ धाराधर, पाणी तणा प्रवाह षलहलई, वाडि ऊपरि वेला वलई । चीखलि चालता शकट स्खलई, लोक तणां मन धर्म्म ऊपरि वलई । "
ऐसे वर्णनात्मक और तुकांत साहित्यिक गद्य रचनाओं की एक परम्परा रही है, जिनमें से कुछ रचनाओं का संग्रह मैने अपने 'सभाशृंगार' ग्रंथ में किया है जो नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हो चुका है । इसी तरह मेरे मित्र डा. भोगीलाल सांडेसरा संपादित 'वर्णक समुच्चय' के दो भाग बडोदा से प्रकाशित हुए हैं । मेरी जानकारी में इतना अलंकारिक, साहित्यिक गद्य इतना प्राचीन अन्य किसी भी प्रान्तीय भाषा में नहीं है ।
15 वीं शताब्दी के और भी कई बालावबोध प्राप्त हैं जिनमें सुंदर कथाएं भी मिलती हैं । उनमें से सोमसुन्दरसूरि के 'उपदेशमाला' और 'योगशास्त्र' बालावबोध की कुछ कथाएं 'प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ' में प्रकाशित हो चुकी हैं । अभी-अभी 'सीता राम चरित' नामक 15 वीं शताब्दी की गद्य कथा डा. हरिबल्लभ मायाणी संपादित 'विद्या' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई है जो गुजरात विश्वविद्यालय की शोध पत्रिका है । इसी तरह की 'धनपाल कथा' श्रीर 'तत्वविचार प्रकरण' में राजस्थान भारती मादि मैं प्रकाशित कर चुका हूं । सं. 1485 की लिखी हुई 'कालिकाचार्य कथा' भी मेरे संग्रह में हैं ।
मेरुतुंगसूरि ने व्याकरण चतुष्क बालावबोध, साधुरत्नसूरि ने नवतत्व बालावबोध, दयासिंह ने संग्रहणी और क्षेत्रसमास बालावबोध की रचना की । सोमसुन्दरसूरि का षष्टिशतक बालावबोध सं. 1496 में रचित डा. सांडेसरा ने संपादित करके प्रकाशित किया है । हमारे संग्रह में 'तपागच्छ गुर्वावली' की सं. 1497 की लिखी गई प्रति है जो 15 वीं शती के ऐतिहासिक गद्य का अच्छा उदाहरण है ।
जिनसागरसूरि ने षष्टिशतक बालावबोध सं. 1491 में बनाया ।
16 वीं शताब्दी में प्राकृत और संस्कृत के अनेक ग्रन्थों की बालावबोध भाषा टीका जैन विद्वानों ने बनायी, जिनमें हेमहंसगणि का पडावश्यक बालावबोध सं. 1501 में रचा गया । मेवाड के देवकुलपाटक में माणिक्यसुन्दर गणि ने भवभावना बालावबोध सं. 1501 में रचा । जिनसूरि रचित गौतमपृच्छा बालावबोध, संवेगदेव गणि रचित पिण्डविशुद्धि बालावबोध सं. 1513, धर्मदेव गणि रचित षष्टि शतक बालावबोध संवत् 1515, आसचन्द्र रचित कल्पसूत बालावबोध सं. 1517, जयचन्द्रसूरि रचित चउसरण बालावबोध सं. 1518 से पूर्व, उदयवल्लभपूरि रचित क्षेत्रसमास बालावबोध, कमलसंयम उपाध्याय रचित सिद्धान्त सारोद्धार आदि प्राप्त हैं और नन्नसूरि रचित उपदेशमाला बालावबोध सं. 1543 में रचित रॉयल एशियाटिक सोसायटी, लन्दन से प्रकाशित हो चुका है ।