________________
252
विषय का यथोचित विवेचन करता हुआ आगे बढने के लिये सर्वत ही श्रातुर रहा है। जहां कहीं भी विषय का विस्तार हुआ है वहां उत्तरोत्तर नवीनता आती गई । वह विषय विस्तार सांगोपांग विषय - विवेचना ही की प्रेरणा से ही हुआ है । जिस विषय को उन्होंने छुप्रा उसमें 'क्यों' का प्रश्नवाचक समाप्त हो गया है शैली ऐसी अद्भुत है कि एक अपरिचित विषय भी सहज हृदयंगम हो जाता है ।
पंडित जी का सबसे बडा प्रदेय यह है कि उन्होंने संस्कृत, प्राकृत में निबद्ध प्राध्यात्मिक तत्वज्ञान को भाषा - गद्य के माध्यम से व्यक्त किया और तत्व विवेचन में एक नई दृष्टि दी । यह नवीनता उनकी क्रान्तिकारी दृष्टि में है ।
टीकाकार होते हुए भी पंडित जी ने गद्यशैली का निर्माण किया । डा. गौतम ने उन्हें गद्य निर्माता स्वीकार किया है । 1 उनकी शैली दृष्टान्तयुक्त प्रश्नोत्तरमयी तथा सुगम है । वे ऐसी शैली अपनाते हैं जो न तो एकदम शास्त्रीय है और न श्राध्यामिक सिद्धियों और चमत्कारों से बोझिल । उनकी इस शैली का सर्वोत्तम निर्वाह मोक्षमार्ग प्रकाशक में है । तत्तकालीन स्थिति में गद्य को आध्यात्मिक चिन्तन का माध्यम बनाना बहुत ही सूझ-बूझ और श्रम का कार्य था । उनकी शैली में उनके चिन्तक का चरित्र और तर्क का स्वभाव स्पष्ट झलकता है। लेखक होते हुए भी उनकी गद्यशैली में व्यक्तित्व का प्रक्षेप उनकी मौलिक विशेषता है।
एक आध्यात्मिक
पंडित जयचन्द जी छाबडा :---
7.
पंडित टोडरमल के पश्चात् राजस्थानी गद्य के प्रमुख निर्माता के रूप में पं. जयचन्द् छाबड़ा का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है । जब ये 11 वर्ष के थे तभी से इन्होंने अपने आपको विद्वानों को समर्पित कर दिया । संवत् 1859 (सन् 1802 ) से इन्होंने लिखना प्रारम्भ किया और सर्व प्रथम तत्वार्थ सूत्र वचनिका लिखी । अब तक उनकी निम्न कृतियां प्राप्त हो चुकी हैं।
1. तत्वार्थसूत्र वचनिका (सं. 1859 ) सर्वार्थसिद्धि वचनिका (सं. 1862 ) प्रमेयरत्नमाला वचनिका (सं. 1863 )
2.
3.
4. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा भाषा (सं. 1863)
5.
6.
द्रव्य संग्रह वचनिका (सं. 1863) समयसार वचनिका (सं. 1864) देवागमस्तोत्र ( प्राप्त मीमांसा) (सं. 1866 ) प्रष्ट पाहुड वचनिका (सं. 1867 )
7.
N
8.
9. ज्ञानार्णव वचनिका (सं. 1869 )
10.
भक्तामर स्तोत वचनिका (सं. 1870 ) 11. पदसंग्रह
12.
सामायिक पाठ वचनिका पत्र परीक्षा वचनिका
13.
14.
चन्द्रप्रभ चरित वि. सर्ग
15. धन्यकुमार चरित वचनिका
इनके ग्रन्थों की भाषा सरल सुबोध एवं परिमार्जित है, भाषा में जहां भी दुरूहता आई है, उसका कारण गम्भीर भाव और तात्विक गहराइयां रही हैं। इनके गद्य का नमना इस प्रकार है:
1. हिन्दी गद्य का विकासः डा. प्रेम प्रकाश गौतम, अनुसंधान
प्रकाशन, आचार्य नगर, कानपुर, पृ. 185 व 188