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12. ऋषभदास :
ऋषभदास झालरापाटन के रहने वाले थे। ये हूंबड जाति के श्रावक थे। इनके पिता का नाम नाभिराय था। वसुनन्दि श्रावकाचार की भाषा टीका इन्होंने आमेर के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति की प्रेरणा से लिखी थी। भाषा टीका विस्तृत है जो 347 पृष्ठों में पूर्ण होती है। भाषा टीका संवत् 1907 की है। जिसका उल्लेख निम्न प्रकार हुआ है:
ऋषिपूरण नव पुनि, माघ पुनि शुभ श्वेत ।
जया प्रथा प्रथम कुजवार, मम मंगल होय निकेत ॥ वसुनन्दिश्रावकाचार की पाण्डुलिपियां डीग एवं डूंगरपुर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है।
13. ज्ञानचन्द :
प्राचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव पर संस्कृत एवं हिन्दी की कितनी ही टीकायें उपलब्ध होती हैं इनमें ज्ञानचन्द द्वारा रचित हिन्दी गद्य टीका उल्लेखनीय है। टीका का रचनाकाल संवत् 1860 माघ सुदि 2 है। टीका की भाषा पर राजस्थानी का पूर्ण प्रभाव है। इसकी एक पाण्डुलिपि दि. जैन मन्दिर कोटडियाल डूंगरपुर में संग्रहीत है।
14. केशरीसिंह :
पं. केशरीसिंह जयपुर के रहने वाले थे। ये भट्टारकीय परम्परा के विद्वान थे। जयपूर राज्य के दीवान बालचन्द छाबडा के पुत्र दीवान जयचन्द के अनुरोध पर पं. केशरीसिंह ने संवत् 1873 में वर्धमान पुराण की भाषा टीका निबद्ध की। ये यहां के लश्कर के दिगम्बर जैन मन्दिर में रहते हुये साहित्य निर्माण का कार्य करते थे। इनके गद्य का एक उदाहरण निम्न प्रकार है
"अहो या लोक विषे ते पुरुष धन्य है ज्यां पुखन का ध्यान विष तिष्ठता चित्त उपसर्ग के सैकण्डेन करिह किञ्चित् मात्र ही विक्रिया के नहीं प्राप्ति होय है।"
15. चम्पाराम भांवसा :- .
ये खण्डेलवाल जाति में उत्पन्न हुये थे। इनके पिता का नाम हीरालाल था जो माधोपुर (जयपुर) के रहने वाले थे। इन्होंने अपनी ज्ञान-वृद्धि के लिये 'धर्म प्रश्नोत्तर श्रावकाचार' एवं भद्रबाह चरित्र' की रचना की थी। ये दोनों ही कृतियां राजस्थानी भाषा की अच्छी रचनायें मानी जाती हैं।