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हिन्दी जैन साहित्य की प्रवृत्तियां-1.
डॉ. नरेन्द्र भानावत
प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और राजस्थानी के समान हिन्दी (खड़ी बोली) भाषा में भी राजस्थान के जैन साहित्यकार अविच्छिन्न रूप से साहित्य-सर्जना करते रहे हैं। हिन्दी के विकास के साथ समाज-सुधार, राष्ट्रीयता, आधुनिकीकरण आदि की भावना विशेष रूप से जडी होने के कारण हिन्दी जैन साहित्य का कथ्य और शिल्प भी उससे प्रभावित हा । जैन साहित्य मख्यतः धार्मिक विचारधारा से प्रभावित रहा है और पुरानी हिन्दी में लगभग 12वीं शताब्दी से नद्यावधि जो रचनायें मिलती हैं उनमें धार्मिक मान्यताओं का यह रूप स्पष्ट देखा जा सकता है। आधुनिक हिन्दी में रचित जैन साहित्य इस धार्मिकता से अछूता नहीं है पर यह अवश्य है कि वह साहित्यिक तत्त्वों से अधिकाधिक संपन्न होता जा रहा है। अाधुनिक जैन साहित्यकार अपने कथाबीज प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों से अवश्य लेता है पर उनका पल्लवन
और पुष्पन करने में वह अधुनातन विचार-दर्शन और साहित्यिक प्रवृत्तियों को अपनाने में पीछे नहीं रहा है। साहित्य-सृजन की मूल प्रेरणा धार्मिक होते हुए भी वह संकुचित धार्मिक सीमा से प्राबद्ध नहीं है। उसका पठन-पाठन का क्षेत्र भो अब जैन मन्दिरों, उपाश्रयों और स्थानकों से आग बढ़ कर जैनेतर समाज तक विस्तृत हुआ है और इस प्रकार समसामयिक साहित्य के समानान्तर उठ खड़े होने में उसकी क्षमता उजागर हुई है।
- राजस्थान में आधुनिक हिन्दी साहित्य सर्जना में संत-सतियों और श्रावकों दोनों का समान रूप से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हिन्दी के राष्ट्र भाषा पद पर प्रतिष्ठित होने व संपर्क भाषा के रूप में उसका महत्त्व बढ़ने से संत-सतियों में प्राकृत और संस्कृत भाषा के अध्ययनअध्यापन की प्रवृत्ति के साथ हिन्दी-भाषा और साहित्य के अध्ययन की प्रवृत्ति ने विशेष जोर पकडा। धामिक शिक्षण के साथ-साथ व्यावहारिक शिक्षण का लाभ भी वे लेने लगे। यद्यपि धर्म और दर्शन ही अध्ययन का मुख्य क्षेत्र बना रहा तथापि इतिहास, राजनीति शास्त्र, समाज
स्त्रि, अर्थ शास्त्र, मनोविज्ञान, भूगोल जसे समाजविज्ञान क्षत्र के विषयों के भी वे सम्पर्क में पाए। विश्व-विद्यालयी पद्धति से अध्ययन करने का क्रम चालू होने व तथाकथित परीक्षाएं देने से संत-सतियों के चिन्तन-फलक का विस्तार हुप्रा तथा व्याख्यान एवं विवेचना शैली वस्तुनिष्ठ, तर्कसम्मत और परिष्कृत बनी। इधर मुद्रण और प्रकाशन की सुविधाएं भी विशेष रूप से बनीं। राजस्थान से ही कई मासिक एवं पाक्षिक जैन पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगी। इन सबका सम्मिलित प्रभाव साहित्य-सर्जना पर भी पड़ा।
राजस्थान में रचित आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य को अभिव्यक्ति के माध्यम की दृष्टि से मख्यत: दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-पद्य और गद्य। यद्यपि मानव जीवन के दैनिक व्यवहार में गद्य का ही विशेष महत्त्व है तथापि साहित्य में गद्य का विकास पद्य के बाद ही हा परिलक्षित होता है। इसके मूल मानव की भावनात्मक प्रवृत्ति ही प्रधान कारण रही है। सामान्यतः पद्य को ही काव्य या कविता कहा जाता है। बन्ध की दृष्टि से कविता के दो भेद किए जाते हैं--प्रबंध और मुक्तक। प्रबंध में पूर्वापर का तारतम्य होता है. मक्तक में यह तारतम्य नहीं पाया जाता। प्रबंध में छन्द एक दूसरे से कथानक की शृंखला में बंधे रहते हैं। उनका क्रम उलटा-पलटा नहीं जा सकता। वे एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं। मस्तक स्वतः पूर्ण होते हैं, वे क्रम से रखे जा सकते हैं पर एक छंद दूसरे छंद की क्रमबद्धता की