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प्राकृत के सत्र या गाथा का विवेचन राजस्थानी गद्य में किया गया उसका प्राथमिक नमूना सं. 13 58 में लिखे हुये नवकार व्याख्यान से यहां उद्धृत किया जा रहा है :
"नमो अरिहंताणं ॥1॥ माहरउ नमस्कार अरिहंत हउ । किसा जि अरिहंतु रागद्वेषरूपिया अरि-वयरी जैहि हणिया, अथवा चतुषष्ठि इंद्र संबन्धिनी पूजा महिमा अरिहइ; जि उत्पन्न दिव्य विमल केवलज्ञान, चउनीस अतिशयि समन्वित, अष्ट महाप्रातिहार्य शोभायमान महाविदेहि खेनि विहरमान तीह अरिहंत भगवंत माहरउ नमस्कारु हउ ।। 1॥"
व्रतों में दूषण लगाने को अतिचार कहते हैं। श्रावक पाक्षिक प्रतिक्रमण आदि में लोक भाषा में अपने व्रतों में लगे हुए दोषों की आलोचना करते हैं। उस अतिचार संज्ञक रचना में गद्य कुछ अधिक स्पष्ट हुआ है। इसलिए सं. 1369 की लिखी हुई ताडपत्रीय प्रति का कुछ अंश नीचे दिया जा रहा है :
"हिव दुकृत गरिहा करउ। जु प्रणादि संसार मांहि हीडतई हतई ईणि जीवि मिथ्यात्वु प्रवर्ताविउ । कुतिर्थ संस्थापिउ, कुमार्ग प्ररूपिउ, सन्मार्ग अवलपिउ । हिवु ऊपाजि मेल्हि सरीरु कुटुंबुज पापि प्रवर्तिउ, जि अघि गण हलऊ खल घरट घरटी खांडा कटारी अरहद्र पावटा कुप तलाब कीधा कराव्यां, अनुमोद्या ते सर्वे त्रिविधि त्रिविधि वोसिरावउ । देवस्थानि द्रवि वेवि पूजा महिमा प्रभावना की घी, तीर्थजाना रथजात्रा कीघी, पूस्तक लिखाव्यां, सार्धामक-वाछल्य कीधां, तप नीयम देववंदन वांदणांई सज्झाई अनेराइ धर्मानुष्ठान तणइ विषइ जु ऊजमु कीधउ सु अम्हारउ सफलु हो । इति भावनापूर्वक अनुमोदउ ।"
___ 14 वीं शताब्दी के राजस्थानी गद्य के कुछ नमने ऊपर दिये गये, वे सभी छोटी-छोटी रचनामों के रूप में हैं। वास्तव में राजस्थानी गद्य का सही स्वरूप 15 वीं शताब्दी से मिलने लगता है। खरतरगच्छ के प्राचार्य तरुणप्रभसूरि ने 'षडावश्यक बालावबोध' नामक बालावबोध संज्ञक पहली रचना संवत 1411 में पाटण में बनाई। उसमें प्रासंगिक कथाएं बहत सी पायी जाती हैं। जिनमें से कुछ 'प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ' में प्रकाशित हो चुकी हैं। उन कथाओं में प्रवाहबद्ध गद्य का स्वरूप स्पष्ट हुअा है--
"1. शंका विषइ उदाहरण यथा-नगरि एकि सेठि एक तणा बि पूत्र ले साल पढइं।
तीहरहइ आरोग्य बुद्धि वृद्धि निमित्तु माता सप्रभाव प्रोसही पेया एकांत स्थानि थिकी करावइ। तीहं माहि एक रहई मक्षिकादि शंका लगी मनि सूग उपजइ। मानस दुक्खपूर्वक सरीर दुक्ख, इणि कारणि तेहरहई वल्गुली रोगु ऊपनउ, मूयउ ।
2. आकांक्षा विषइ उदाहरणु-राजा अनइ महामात्यु बे जणा अश्वापहारइतउ
अटवी माहि गया। भूखिया हया। वणफल खाधा। नगरि प्राविया । राजा सूपकार तेडी करी कहइ 'जि के भक्ष्य-भैद संभवई ति सगलाइ करउ' सुपकारे कीधा ।"
तरुणप्रभसूरि ने यद्यपि यह बालावबोध पाटण में रचा है पर उनका विहार राजस्थान और सिन्ध प्रदेश तक में होता रहा है। उस समय प्रांतीय भाषाओं में इतना अंतर नहीं था। तरुणप्रभसूरि को प्राचार्य पद 1388 में मिला था। अतः उनकी रचना की भाषा गुजरात और राजस्थान में तत्कालीन जन सामान्य की भाषा थी। इसके बाद तो बालावबोध शैली का खूब विकास हा और इससे राजस्थानी गद्य के नमने भी प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण के प्राप्त हैं।