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जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ के अस्तित्व का इतिहास वि. सं. 1817 की भाषाढ़ पूर्णिमा से आरम्भ होता है । इस प्रकार एक सम्प्रदाय के रूप में तेरापन्थ यद्यपि भर्वाचीन धर्म-संप है किन्तु साहित्यिक चेतना और उसकी सृजनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में उसकी प्रसिद्धि सर्व बिचित है । नवीन सम्प्रदाय की कुशल संगठन व्यवस्था, स्वरूप निर्माण एवं उसके प्रचार-प्रसार के लिये प्रारम्भिक दिनों से ही राजस्थानी गद्य और पद्य के रूप में विपुल साहित्य-निर्माण की परम्परा आरम्भ हो गई थी, जिसकी सुदृढ़ नींव ग्राद्य प्राचार्य संत भीखण जी के कर-कम द्वारा रखी गई थी, परिणामस्वरूप परवर्ती काल में भी विविध रूपात्मक एवं विषयात्मक साहित्य सृजन की प्रक्रिया अनवरत रूप से चालू रही ।
राजस्थानी गद्य साहित्यकार 8
तेरापन्थ का राजस्थानी गद्य इसी परम्परा में विशाल परिमाण में प्रारम्भिक समय से ही प्राप्त होता है । अब तक किये गये अनुसंधान से तेरापन्थ सम्प्रदाय के ग्यारह राजस्थानी गद्य साहित्यकार और उनकी कृतियां प्रकाश में आई हैं ।
समस्त कृतिकार प्राचार्य अथवा संस
हैं । इनकी कुछ तात्विक चर्चा - प्रधान रचनायें यत्र तत्र प्रकाशित भी हुई हैं किन्तु अधिकांचा गद्य साहित्य हस्तलिखित गन्थों एवं पत्तों के रूप में ही उपलब्ध होता है। इनकी मूलप्रतिषाँ तथा उनकी प्रतिलिपियां वर्तमान में युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी एवं उनके प्राज्ञानुवर्ती साधुसाध्वियों के पास हैं । कुछ प्रतियां लाडनूं (जिला नागौर) स्थित संग्रहालय में भी विद्यमान हैं।
1. लिखित मर्यादावलि
2.
3. हाजरी
4. हुण्डी
ख्यात
बोल
5.
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यह सम्पूर्ण गद्य साहित्य मौलिक और प्रमौलिक दो प्रकार का है। मौलिक गद्य, कृतिकार की स्वयं की उद्भावना से उद्भाषित है तथा श्रमौलिक गद्य अनुदित अथवा टीकायुक्त है । रूप-परम्परा की दृष्टि से भी यह गद्य काफी समृद्ध है । गद्य साहित्य के कुछ रूप तो राजस्थानी गद्य साहित्य के लिये अत्यन्त नवीन और विशिष्ट हैं, वस्तुतः ये तेरापन्थ सम्प्रदाय की देन के रूप में विख्यात हैं । लिखित, हाजरी, मर्यादावलि, हुण्डी, चरचा, टहुचा, दृष्टांत ( स्मरण) आदि ऐसे ही विशिष्ट गद्य रूप हैं । समस्त गद्य साहित्य निम्न रूपों में उपलब्ध होता है:--
6.
-डा. देव कोठारी
7.
चरचा
8. दृष्टांत ]
9.
द्वार
10.
थोकडा
11.
ध्यान
12. कथा
13.
पत्र
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