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नहीं था जिसे सहज और सुगम माना जा सके। मुनि चौथमल जी ने आचार्य श्री कालूगणी की भावना को साकाररूप दिया और आठ वर्षों के अनवरत परिश्रम से तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक प्राचार्य भिक्षु के नाम से क्लिष्टता, विस्तार, दुरन्वय आदि से रहित एक सर्वाग सन्दर व्याकरण तैयार किया। इसमें उणादिपाठ, धातुपाठ, न्यायदर्पण, लिंगानुशासन आदि का भी सुन्दर समावेश है । इस महान कार्य में सोनामाई (अलीगढ़) निवासी आशकविरत्न पं. रघनन्दन शर्मा आयुर्वेदाचार्य का भी मूल्यवान सहयोग रहा। दर्शन और न्यायः
जैन तत्व दर्शन, जीव विज्ञान; 'पदार्थ विज्ञान, आचार शास्त्र; मोक्ष मार्ग, प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तमंगी, स्यादवाद आदि विषयों के निरूपण के लिए तीसरी शताब्दी में आचार्य उमास्वाति ने सर्वप्रथम तत्वार्थ सत्र की रचना की। इसे 'मोक्षशास्त्र' भी कहा जाता है। यह ग्रन्थ दिगम्बर और श्वेताम्बरों को समान रूप से मान्य है। इस पर सिद्धसेन, हरिमद्र, पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द, उपाध्याय यशोविजय आदि उच्चकोटि के जैन विद्वानों न टीकाएं लिखी हैं। जैन दर्शन साहित्य का विकास तत्वार्थ सूत्र को केन्द्रीभत मानकर ही हुआ है।
तत्वार्थ सूत्र की गहनता को प्राप्त करना हर एक के लिए संभव नहीं है। आचार्य श्री तुलसी ने दर्शन विषयक "जैन सिद्धान्त दीपिका" और न्याय विषयक "भिक्ष न्याय कणिका" की रचना करके जैन दर्शन और न्याय के अध्येताओं के लिए सरल, सुबोध और मल्यवान सामग्री प्रस्तुत की है। मनि नथमल जी ने हिन्दी भाषा में उसकी विस्तत व्याख्या लिखी है। "जैन दर्शनः मनन और मीमांसा" के नाम से यह स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में भी प्रकाशित है। इससे जैन दर्शन के अध्ययनशील विद्यार्थी बहत लाभान्वित हए हैं।
जैन सिद्धान्त दीपिका की रचना वि. सं. 2002 में वैशाख शक्ला 13 के दिन चरू (राजस्थान) में सम्पन्न हुई। यह नौ प्रकाशों में रचित है। पहले प्रकाश में द्रव्य, गुण और पर्याय का निरूपण है। दूसरे प्रकाश में जीव विज्ञान का निरूपण है। तीसरे प्रकाश में जीव
और अजीव के भेदों का निरूपण है। चौथे प्रकाश में बन्ध पण्य और आस्रव के स्वरूप का निरूपण है। पांचवें प्रकाश में संवर, निर्जरा और मोक्ष के स्वरूप का निरूपण है। छते प्रकाश में मोक्ष मार्ग का विश्लषण है। सातवें प्रकाश में जीवस्थान (गणस्थान) का निरूपण ह। आठवें प्रकाश में देव, गुरू और धर्म का निरूपण है। नौतें प्रकाश में निक्षेप का निरूपण है। इसकी कुल सूत्र संख्या 266 है। इसके सम्पादक और हिन्दी भाषा में अनवादक मनि नथमल जी हैं। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने समान रूप से इसकी उपयोगिता स्वीकार की है। एक फ्रेंच महिला ने जैन सिद्धान्त दीपिका पर पी.एच.डी. भी किया है।
मिक्ष न्याय कणिका की रचना वि. सं. 2002 में भाद्र शक्ला 9 के दिन डूंगरगढ़ (राजस्थान) में सम्पन्न हई है। यह सात विभागों में ग्रथित है। पहले विभाग में लक्षण और प्रमाण के स्वरूप का निरूपण है। दूसरे विभाग में प्रत्यक्ष के स्वरूप का निरूपण है। तीसरे विभाग में मति के स्वरूप का निरूपण है। चौथे विभाग में श्रत के स्वरूप का निरूपण है । पांचवें विभाग में नय के स्वरूप का निरूपण है। छठे विभाग में प्रमेय और प्रमिति के स्वरूप का निरूपण है। सातवें विभाग में प्रमाता के स्वरूप का निरूपण है। इसकी कुलसूत्र संख्या 137 है। इसके सम्पादक मुनि नथमल जी और हिन्दी भाषा म अनुवादक साध्वी प्रमुखा कनकप्रमाजी व साध्वी मंजुलाजी हैं।
इनके अतिरिक्त मनि नथमल जी (बागोर) ने न्याय और दर्शन के क्षेत्र में “यक्तिवाद और अन्यापदेश" नामक ग्रन्थ का निर्माण किया है। तथा मनि नथमल जी ने 'न्याय पंचाशति की रचना की है। किन्तु ये सब अप्रकाशित हैं।