________________
134
तीसरी प्राकृत को वैयाकरणों ने अपभ्रश की संज्ञा प्रदान की है। कुछ लोगों का विचार... है कि अपनश एक भ्रष्ट भाषा है, पर हम इस विचार से सहमत नहीं हैं। वस्तुतः अपभ्रंश वह पाषा है, जिसकी शब्दावली एवं काव्य-विन्यास संस्कृत शब्दानुशासन के नियमों एवं उप-नियमों सेवनकासित नहीं है, जो शब्दावली देशी-भाषाओं में प्रचलित है तथा संस्कृत के जम्बों के यथार्थ उच्चरित न होने से कुछ विकृत रूप म उच्चरित है, वही शब्दावली अपभ्रंश पापा के अन्तर्मत मानी जाती है । यही कारण है कि महर्षि पतञ्जलि ने एक ही संस्कृत-शब्द के सवारण भेद से अनेक शब्द स्वीकार किए हैं।। अतएव अपभ्रश वह भाषा है जिसमें प्राकृत ... की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक देशी-शब्द उपलब्ध हैं तथा वाक्य-रचना एवं अन्य कई दृष्टियों से सरलीकरण तथा देशीकरण की प्रवत्ति अधिकतर प्राप्त होती है और जिसकी शब्दराशि पाणिनि के व्याकरम से सिद्ध नहीं है।
ईस्वी सन् की दूसरी सदी के समर्थ आचार्य भरतमनि ने यद्यपि अपभ्रश भाषा का स्पष्ट उल्लेखनहीं किया, किन्तु उन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत के साथ-साथ दश्य-भाषा2 का भी उल्लेख किया है तथा इसी देश्य-भाषा में शबर, आभीर, चाण्डाल, द्रविड, ओड़ तथा अन्य नेचरों को विमाषाबों की भी गिनती की है । अतः भरतमुनि का उक्त उल्लेख अपभ्रश की सूचना देता है क्योंकि आगे चलकर विविध देशों में विविध प्रकार की भाषाओं के प्रयोग किये जाने का उन्होंने उल्लेख किया है। उनके अनुसार हिमालय क आसपास स्थित प्रदेशों तथा सिन्ध, सौवीर बसे देशवासियों के लिये उकार-बहला भाषा का प्रयोग होना चाहिये । उकार-बहुल शब्द बपना की ही सर्वविदित प्रवृत्ति है ।
उक्त मरतमुनि की उकार-बहुला भाषा-अपभ्रंश काव्य-भाषा कब बनी, इसका स्पष्ट उस्लेख बलभी के राजा घरसेन द्वितीय (678 ई. के लगभग) के दानपत्र में मिलता है। उसके समय में प्राकृत एवं संस्कृत के साथ ही अपम्रश में भी काव्य-रचना करना एक विशिष्ट प्रतिभा का घोतक प्रशंसनीय-चिन्ह माना जाने लगा था । उक्त दान-पत्र में धरसेन ने अपने पिता गुहसेन (559-569 ई.) को संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रश काव्य-रचना में प्रत्यन्त निपुण कहा है। इससे शात होता है कि छठवीं सदी तक अपभ्रंश भाषा व्याकरण एवं साहित्य के नियमों से परिनिष्ठित हो चुकी थी और वह काव्य-रचना का माध्यम बन चुकी थी । आगे चलकर महाकवि दगडी, राजशेखर, नमिसाध, अमरचन्द्र प्रभूति आचार्यों ने विविध दष्टिकोणों से विचार किया है बीर उनके अध्ययन से यही विदित होता है कि इसकी दूसरी शती में जहां अपभ्रंश का प्रच्छन्न मामोल्लेख मात्र मिलता था और अपाणिनीय शब्दों के अतिरिक्त अपभ्रष्ट, विकृत या अशुद्ध सक्दमात्र अपभ्रश की संज्ञा प्राप्त करते थे, वहीं ईस्वी की छठवीं-सातवीं सदी तक वह साहित्यिक बाबा के रूप में प्रचलित हो गई और नौवीं-दसवीं सदी तक वह सर्वाधिक सशक्त एवं समद्ध भाषा के रूप में विकसित हो गई । उसके बाद वही अपभ्रश आधुनिक देश-भाषाओं के रूप में विकसित होने लगी, यद्यपि उसकी साहित्यिक रचनाएं पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी तक चलती रहीं।
अपमंश के उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि छठी सदी के अनन्तर उसमें साहित्यिक स्वनाएं होने लगी थीं, पर अपभ्रश साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास महाकवि चउमह से प्रारम्भहोता है और उसके बाद दसवीं सदी से तेरहवीं सदी के पूर्वार्ध तक तो इसका स्वर्णकाल ही माना जाने लगा।
1. महाभाष्य 111111 2. नाट्यशास्त्र 18122-23 3. बही 17150 4. नाटयशास्त्र 18147-48 5. इण्डियन ए न्दीक्वेरी वोल्यूम 10, पृष्ठ-284