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क्षमता है। कवि के काम
हमा है। कवि में अपने मन्तव्य को आकर्षक रीति से कहने की क्षमता है। कवि के काव्य सदा ही लोकप्रिय रहे हैं। आज भी राजस्थान के पचासों शास्त्र भण्डार इनकी कृतियों से समलंकृत हैं।
(3) पद्मनाभ :
ये राजस्थानी विद्वान थे और चित्तौड इनका निवास स्थान था। अभी तक इनकी एक रचना बावनी उपलब्ध हुई है जिसे इन्होंने संघपति डूंगर के प्राग्रह से लिखी थी। बावनी का रचना काल सन 1486 है। इसमें सभी 54 छन्द छप्पय छन्द हैं। राजस्थानी भाषा एवं शैली की दृष्टि से यह एक उच्चस्तरीय रचना है। इसका दूसरा नाम 'डूंगर की बावनी' भी है क्योंकि बावनी के प्रत्येक छन्द में संघपति डूंगर को संबोधित किया गया है।
(4) ठक्कुरसी :
कविवर ठक्कूरसी राजस्थानी के अच्छे विद्वान थे। इनकी लिखी हई अब तक 5 रचनायें उपलब्ध हो नकी हैं जिनके नाम हैं -पार्श्वनाथ सत्तावीसी, शील बत्तीसी, पंचेन्द्रिय बेलि, कृपण चरित्र एवं नेमि राजमति वेलि । प्रथम रचना संवत् 1578 में तथा दूसरी एवं तीसरी रचना संवत् 1585 में समाप्त हुई थी। यद्यपि ये सभी लघु रचनायें हैं लेकिन भाषा एवं वर्णन शैली की दष्टि से ये उच्चकोटि की कृतियां हैं। कविवर ठक्कुरसी अपनी र
। कविवर ठक्कुरसी अपनी रचनाओं के कारण राजस्थान में काफी लोकप्रिय रहे। भण्डारों में पंचेन्द्रिय वेलि, कृपण चरित्न जैसी रचनाएं अच्छी संख्या में उपलब्ध होती हैं।
इनके पिता का नाम धेल्ह अथवा थेल्ह था। ये राजस्थान के किस प्रदेश में निवास करते थे इसके बारे में इनकी रचनायें मौन हैं।
(5) छोहल :--
राजस्थानी कवियों में छीहल का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में इनकी प्रमुख रचना बावनी पर्याप्त संख्या में उपलब्ध है। ये अग्रवाल जैन थे और इनके पिता का नाम नाथू था। अब तक इनकी पांच कृतियां उपलब्ध हो चुकी हैं जिनके नाम निम्न प्रकार हैं :--
पंच सहेली गीत उदरगीत
पंथी गीत बेलि
बावनी गीत (रे जीव-जगत सुपणों जाणि)
प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं डा. रामकुमार वर्मा ने भी अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में कवि के पंच पहेली गीत का उल्लेख किया है।
उक्त रचनायों में पंथी गीत एवं पंच पहेली गीत का रचनाकाल संवत् 1575 तथा बावनी का संवत् 1584 है। बावनी कवि की सबसे बड़ी रचना है जो एक से अधिक विषयों के वर्णन से युक्त है। जिसमें संसार की दशा, नारी चरित्र आदि विषय प्रमुख हैं। बावनी के प्रत्येक छंद में कवि ने अपने नाम का उल्लेख किया है। कवि की शेष सभी रचनायें गीतों के रूप में है जिससे पता चलता है कि तत्कालीन जन साधारण को हिन्दी भाषा की और प्राकृष्ट