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ये सांगानेर में रहे और वहीं रहते हुये रचनायें लिखी थीं। इनकी अभी तक दो रचनायें प्राप्त होती हैं--रत्नकरण्ड श्रावकाचार एवं सूबद्धिप्रकाश। प्रथम रचना को इन्होंने सं. 1821 में तथा दूसरी को संवत् 1824 में समाप्त की थी। सुबुद्धिप्रकाश का दूसरा नाम थानविलास भी है। इसमें छोटी रचनाओं का संग्रह है। दोनों ही रचनायें भाषा एवं वर्णन शैली की दष्टि से सामान्य रचनायें हैं। इनकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव है।
(30) हीराः
हीरा कवि बंदी के रहने वाले थे। इन्होंने संवत् 1848 में नेमिनाथ ब्याहलो नामक लघु रचना लिखी थी । रचना गीतात्मक है।
(31) टेकचन्द्र:
टेकचन्द्र 18वीं शताब्दी के राजस्थानी कवि हैं । इनके पिता का नाम दीपचन्द एवं पितामह का नाम रामकृष्ण था। ये मूलत: जयपुर निवासी थे लेकिन फिर माहिपुरा में जाकर रहने लगे थे। अब तक इनकी 21 से भी अधिक रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं। इनमें 'पुष्पास्रवकथाकोश (सं. 1822), पंच परमेष्टीपूजा, कर्मदहनपूजा, तीनलोक पूजा (1828), सुदृष्टितरंगिणी (1838), व्यसनराज वर्णन (1827), पंचकल्याण पूजा, पंचभेदपूजा, अध्यात्म बारहखडी एवं दशाध्यान सूत्र टीका' के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके पद भी मिलते हैं जो अध्यात्मरस से अोतप्रोत होते हैं। पूण्यास्रव कथाकोश इनकी वृहत् रचना है जिसमें 79 कथाओं का संग्रह है। चौपई एवं दोहा छन्दों में लिखा हग्रा यह एक सुन्दर काव्य है। कवि ने इसे संवत् 1822 में समाप्त किया था।
इनकी सुदृष्टितरंगिणी जैन समाज में लोकप्रिय रचना मानी जाती है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचरित्र का अच्छा वर्णन हया है।
(32) जोधराज कासलीवाल:---
___जोधराज कासलीवाल महाकवि दौलतराम कासलीवाल के सुपुत्र थे। अपने पिता के समान यह भी राजस्थानी के अच्छे कवि थे। इनकी एकमात्र कृति सुखविलास है जिसमें इनकी सभी रचनाओं का संकलन है। इनका यह संकलन संवत् 1884 को समाप्त हा उस समय कवि की अंतिम अवस्था थी। महाकवि दौलतराम के मरने के पश्चात् कवि जोधराज किसी समय कामां चले गये। सूखविलास में कवि की गद्य पद्य दोनों ही रचनायें सम्मिलित हैं।
(33) सेवाराम पाटनी:--
सेवाराम पाटनी महापण्डित टोडरमल के समकालीन विद्वान् थे तथा उन्हीं के विचारों के समर्थक थे। इनके पिता का नाम मायाचन्द था। ये पहिले दौसा में रहते थे फिर वहां से डीग जाकर रहने लगे। संवत् 1824 में दौसा में रहते हुये ही इन्होंने शांतिनाथ चरित की रचना समाप्त की। इसके पश्चात् संवत् 1850 में इन्होंने डीग में रहते हुये मल्लिनाथ चरित की रचना समाप्त की। उस समय वहां महाराजा रणजीतसिंह का शासन था । प्रस्तुत रचना की मूल पाण्डुलिपि कामां के दिगम्बर जैन मन्दिर में सुरक्षित है।