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भूर सुन्दरी जैन भजनोद्धार (सं. 1980),(2)भर सुन्दरी विवेक विलास (सं. 1984),(3) भूर सुन्दरी बोध विनोद (सं. 1984),(4) भर सुन्दरी अध्यात्म बोध (सं. 1983),(5) भूर सुन्दरी ज्ञान प्रकाश (सं. 1986), (6) भूर सुन्दरी विद्याबिलास (सं. 1986) ।
7. रत्नकुंवर:
प्राचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज की आज्ञानुवर्ती प्रवर्तिनी श्री रत्नकुंवरजी शास्त्र पंडिता और तपस्विनी साध्वी हैं। काव्य क्षेत्र में इनकी अच्छी गति है। स्तवनों और उपदेशों का एक संग्रह 'रत्नावली' नाम से प्रकाशित हुया है। 51 ढालों में निबद्ध इनकी एक अन्य रचना 'श्री रत्नचूड़, मणिचूड चरित्न' भी प्रकाशित हुई है। भीलवाड़ा से एक आख्यानक काव्य 'सती चन्द्रलेखा' सं. 2004 में प्रकाशित हुआ।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर स्थानकवासी परम्परा के कवियों की काव्य-साधना की मुख्य विशेषताओं को संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है:
(1) ये कवि प्रमुख रूप से साधक और शास्त्रज्ञ रहे हैं। कवित्व इनके लिये गौण रहा है। प्रतिदिन जनमानस को प्रतिबोधित करना इनके कार्यक्रम का मुख्य अंग होने से अपने उपदेश को बोधगम्य और जनसुलभ बनाने की दृष्टि से ये समय-समय पर स्तवन, भजन, कथाकाव्य मादि की रचना करते रहे हैं।
(2) इस परम्परा में बत्तीस प्रागमों की मान्यता होने से इनके काव्य का मूल-प्रेरणास्रोत पागम साहित्य और इससे संबद्ध कथा साहित्य रहा है। सुविधा की दृष्टि से इनके काव्य के चार वर्ग किये जा सकते हैं-चरितकाव्य, उत्सव काव्य, नीति काव्य और स्तुति काव्य । चरित काव्य में सामान्यतः तीर्थंकरों, गणधरों, महान प्राचार्यों, निष्ठावान श्रावकों, सतियों आदि की कथा कही गई है। 'रामायण' और 'महाभारत' को अपने ढंग से ढालों में निबद्ध कर उनके प्रादर्शों का व्यापक प्रचार प्रसार करने में ये बडे सफल रहे हैं। ये काव्य रस, चौपाई ढाल, सज्झाय, संधि, प्रबन्ध, चौढालिया, पंचढालिया, षटढालिया, सप्तढालिया, चरित, कथा आदि रूपों में लिखे गये हैं। उत्सव काव्य विभिन्न आध्यात्मिक पवों और ऋतु विशेष के बदलते हुये वातावरण को माध्यम बना कर लिखे गये हैं। इनमें सामान्यतः लौकिक रीति-नीति को सांगरूपक के माध्यम से लोकोत्तर रूप में ढाला जा रहा है। नीति काव्य जीवनोपयोगी, उपदेशों, तथा तात्विक सिद्धांतों से संबंधित हैं। इनमें सदाचार पालन, कषायत्याग, सप्तव्यसन-त्याग ब्रह्मचर्य, व्रत-प्रत्याख्यान, बारह भावना, ज्ञान दर्शन, चारित्र, तप, दया, दान, संयम, आदि का माहात्म्य तथा प्रभाव वर्णित है। स्तुति काव्य चौबीस तीर्थंकरों, बीस विहरमानों और महान् माचार्यों तथा मुनियों से संबंधित हैं।
(3) इन विभिन्न काव्यों का महत्व दो दृष्टियों से विशेष है। साहित्यिक दृष्टि से इन कवियों ने महाकाव्य और खण्ड काव्यों के बीच काव्य-रूपों के कई नये स्तर कायम किये और उनमें लोक संगीत का विशेष सौन्दर्य भरा। वर्ण्य-विषय की दष्टि से अधिकांश चरित काव्यों में कथा की कोई नवीनता या मौलिकता नहीं है। पिष्टपेषण मात्र सा लगता है। एक ही चरित्र को विभिन्न रूपों में बार-बार गाया गया है। पर इन कथाओं के माध्यम से क्षेत्रीय लोकजीवन पौर लोक संस्कृति का जो चित्र अंकित किया गया है, वह सांस्कृतिक दृष्टि से बड़े महत्व का है। प्रागमिक कथाभों के अतिरिक्त अपनी परम्परा से संबद्ध जिन महान प्राचार्यो मनियों और साध्वियों पर जो सज्झाय, स्तवन मौर ढानें लिखी गई हैं, उनमें ऐतिहासिक शोध की पर्याप्त सामग्री है।