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अपभ्रंश साहित्य : विकास एवं प्रवृत्तियां 2.
डा. राजाराम जैन
भारतीय वाङ भय का प्रारम्भ वैदिककाल के उन साधक ऋषियों की वाणी से प्रारम्भ होता है, जिन्होंने प्रकृति की कोमल और रौद्र शक्तियों से प्रभावित होकर आशा-निराशा, हर्षविषाद एवं सुख-दुख सम्बन्धी अपने उद्गार आलंकारिक वाणी में प्रकट किए थे। विद्वानों ने उस वाणी को छान्दस् भाषा कहा है । ऋग्वेद एवं अथर्ववेद की भाषा वही छान्दस् थी, किन्तु गम्भीर अध्ययनों के बाद भाषा-वैज्ञानिक विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुचे हैं कि उक्त दोनों वेदों की छान्दस् भाषा में भी पर्याप्त अन्तर है । उनका अभिमत है कि ऋग्वेद की भाषा ब्राह्मण ग्रन्थों की संस्कृत में ढाली हुई एक सुनिश्चित परम्परा - सम्मत है, किन्तु अथर्ववेद की भाषा -- जनभाषा है और इसके साहित्य में पर्याप्त लोकतत्व पाए जाते हैं । अतएव स्पष्ट है कि आर्य भाषा और आर्य-साहित्य पर द्रविड और मुण्डा वर्ग की भाषा और साहित्य का प्रभाव पर्याप्त रूप में पड़ा है और अथर्ववेद उसी प्रभाव को स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त कर रहा है 2 |
आर्यों के सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तनों के संदर्भ में उनकी बोलचाल की भाषा भी बदलती रही और ध्वन्यात्मक तथा पद-रचनात्मक दृष्टि से पर्याप्त विकास होता रहा । ब्राह्मण एवं उपनिषद् काल में वैभाषिक प्रवृत्तियां स्पष्टतः परिलक्षित होती हैं । वैदिक भाषा पर प्राच्य जनभाषा का इतना अधिक प्रभाव पडा कि जिससे ब्राह्मण-ग्रन्थों ने असंस्कृत एवं प्रशुद्ध प्राच्य प्रभाव से अपने को सुरक्षित रखने की घोषणा की । कौषीतिकी ब्राह्मण में उदीच्य लोगों के उच्चारण की प्रशंसा की गई है और उन्हें भाषा की शिक्षा में गुरु माना गया है4 | महर्षि पाणिनि ने जिस संस्कृत भाषा को शब्दानुसार लिखा, वह उदीच्य भाषा ही है । प्राच्य-भाषा, उदीच्य भाषा की दुष्टि से असंस्कृत एवं अशुद्ध थी, क्योंकि उस पर मुण्डा एवं द्रविड जैसी लोक भाषाओं का पर्याप्त प्रभाव था 5 | व्रात्यों की निन्दा जहां उनके यज्ञ-यागादि में आस्था न रहने के कारण की गई है, वहीं उनकी 'देश्य - भाषा' भी उसका एक कारण था । अतएव निष्पक्षरूप से यह स्वीकार करना होगा कि छान्दस युग में देश्य भाषा की एक क्षीण-धारा प्रवाहित हो रही थी, जो आगे चलकर प्राकृत के नाम से विख्यात हुई ।
पी. डी. गुणे प्रभृति अनेक भाषाविदों की यह मान्यता है कि 'छान्दस्' के समानान्तर कोई Street cat थी और यही जनभाषा परिनिष्ठित साहित्य के रूप में वेदों में प्रयुक्त हुई । सुप्रसिद्ध महावैयाकरण पाणिनि ने वैदिक संस्कृत को व्याकरण के द्वारा अनुशासित कर लौकिक संस्कृत भाषा का रूप उपस्थित किया है । पाणिनि के व्याकरण से स्पष्ट है कि छान्दस की प्रवृत्तियां वैकल्पिक थीं । उन्होंने इन विकल्पों का परिहार कर एक सार्वजनीन मान्यरूप उपस्थित किया । वेद की वैकल्पिक विधियां अपने मूल रूप में बराबर चलती रहीं, जिनके ऊपर पाणिनीय-तन्त्र का अंकुश न रहा और ये विकसित प्रवृतियां ही 'प्राकृत' के नाम से पुकारी जाने लगीं । यहां यह ध्यातव्य है कि प्राकृत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सर्वमान्य धारणा यही है कि छान्दस भाषा से ह
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प्राकृत भाषा ( लेखक - प्रबोध पण्डित ) पृ. 13-14 / 2. भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी ( चटर्जी) पृ. स. 63, 3. ताण्ड्य ब्राह्मण 1714/ 4. कौषीतिकी ब्राह्मण 716 / 5. संस्कृत का भाषा शास्त्रीय अध्ययन ( बनारस, 1957 ई.) पृ. 270-271 /6 तुलनात्मक भाषा - विज्ञान ( गुणे ) पृ. 129-130