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राजस्थानी कवि 3
-- डा.
विश्व के इतिहास में 15 - 16वीं शताब्दी वैचारिक क्रान्ति और ग्राचारगत पवित्रता की शताब्दी रही है । यूरोप में पोपवाद के विरुद्ध मार्टिन लूथर ने क्रान्ति का शंखनाद किया । भारत में पंजाब में गुरुनानक, मध्यप्रदेश में संत कबीर और दक्षिण में नामदेव आदि ने धार्मिक श्राडम्बर, बाह्याचार, जड़पूजा आदि के विरुद्ध आवाज बुलन्द कर जनमानस को शुद्ध सात्विक आन्तरिक धर्मसाधना की और प्रेरित किया। इसी कड़ी में महान् क्रान्तिकारी वीर लोंकामाह हुये जिन्होंने जैन धर्म में प्रचलित रूढ़िवादिता तथा जड़ता का उन्मूलन कर साध्वाचार की मर्यादा और संयम की कठोरता पर बल देते हुये गुणपूजा की प्रतिष्ठा की । लोकाशाह द्वारा किये गये प्रयत्नों की इसी पृष्ठभूमि में स्थानकवासी परम्परा का उद्भव, विकास और प्रसार
हुआ ।
- डा. नरेन्द्र भानावत, (श्रीमती) शान्ता भानावत
लोकाशाह के जन्मस्थान, समय और माता-पिता आदि के नाम के संबंध में विभिन्न मत हैं पर सामान्यतः यह माना जाता है कि उनका जन्म संवत् 1472 की कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को अरहटवाड़ा में हुआ । इनके पिता का नाम हेमा भाई और माता का गंगा बाई था । अहमदाबाद में इन्होंने अपना रत्न- व्यवसाय प्रारम्भ किया और थोड़े ही समय में अपनी प्रामाणिकता, श्रमशीलता और दूरदर्शिता से इस क्षेत्र चमक उठे । गुजरात के तत्कालीन बादशाह मुहम्मद ने इनकी कार्य कुशलता और विवेकशीलता से प्रभावित होकर इन्हें खजांची बना लिया। इतना सब कुछ होते हुये भी लोंकाशाह वैभव और ऐश्वर्य में नहीं उलझे । प्रारम्भ से ही तत्वशोधक थे । शास्त्रों के गहन अध्ययन और प्रतिलेखन से उनके ज्ञानचक्षु खुल गये और समाज में व्याप्त शिथिलता तथा आगमों में वर्णित आचरण का प्रभाव देख इन्हें बड़ा आघात पहुंचा । इन्होंने तप, त्याग, संयम और साधना द्वारा आत्मशुद्धि के शाश्वत सत्य को उद्घोषित करने का दृढ़ संकल्प कर लिया । तत्कालीन घोर विरोध और विषाक्त वातावरण में भी इन्होंने अपनी विचार धारा का खाकर प्रचार किया । इनके उपदेशों से प्रभावित होकर लखमसी, भाणजी, नजी आदि लोगों ने इन साथ दिया। इस प्रकार लोकाशाह के माध्यम से धार्मिक जगत में महान् क्रान्ति का सूत्रपात हुआ । 1
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लोंकागच्छ की परम्परा का राजस्थान में भी खूब प्रचार हुआ । जालोर, सिरोही, नागौर, बीकानेर और जैतारण में लोंकागच्छ की गद्दियां प्रतिष्ठापित हो गई । कालान्तर में शाह के 100 वर्षों बाद यह गच्छ मुख्यतः तीन शाखाओं में बंट गया — गुजराती लोंका, गौरी लोंका, और लाहोरी उत्तराधी लोंका तथा धीरे-धीरे धार्मिक क्रान्ति की ज्योति मंद ड़ने लगी । क्रिया में शिथिलता आने के कारण परिग्रह का प्रादुर्भाव होने लगा । फलतः कान्ति शिखा को पुनः प्रज्वलित करने के लिये कुछ ग्रात्मार्थी साधक क्रियोद्धारक के रूप में रामने आये । इनमें मुख्य थे पूज्य श्री जीवराज जी, धर्मसिंह जी, लवजी, धर्मदासजी और
देखिये- धर्मवीर लोकाशाह : मरुधर केसरी श्री मिश्रीमलजी म. ।
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