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सुकुमाल के वैभव पूर्ण जीवन एवं मुनि अवस्था की घोर तपस्या का अति सुन्दर एवं रोमांचकारी वर्णन मिलता है। पूरे काव्य में 9 सर्ग हैं ।
11. मूलाचार प्रदीप -- यह आचार शास्त्र का ग्रन्थ है जिसमें जैन साधु के जीवन में कौन कौन सी क्रियाओं की साधना आवश्यक है-इन क्रियाओं का स्वरूप एवं उनके भेद-प्रभेदों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । इसमें 12 अधिकार हैं जिनमें 28 मूलगुण, पंचाचार, दशलक्षण धर्म, बारह अनुप्रेक्षा एवं बारह नय आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है।
12. सिद्धान्तसार दीपक --- यह करणानुयोग का ग्रन्थ है - इसमें उर्ध्वलोक, मध्यलोक एवं पाताल लोक और उनमें रहने वाले देवों, मनुष्यों, तिर्यचों तथा नारिकयों का विस्तृत वर्णन है । इसमें जैन सिद्धान्तानुसार सारे विश्व का भूगोलिक एवं खगोलिक वर्णन आ जाता है । इसका रचना काल सं. 1481 है। रचना स्थान है-नगली नगर । प्रेरक थे इसके . जिनदास ।
जैन सिद्धान्त की जानकारी के लिये यह बड़ा उपयोगी है । ग्रन्थ 16 सर्गों में है ।
13. वर्द्धमान चरित्र --- इस काव्य में अन्तिम तीर्थंकर महावीर वर्द्धमान के पावनजीवन का वर्णन किया गया है। प्रथम 6 सर्गों में महावीर के पूर्व भवों का एवं शेष 13 अधिकारों में गर्भ कल्याणक से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक विभिन्न लोकोत्तर घटनाओं का विस्तृत वर्णन मिलता है । भाषा सरल किन्तु काव्यमय है । वर्णन शैली अच्छी है । कवि जिस किसी वर्णन को जब प्रारम्भ करता है तो वह फिर उसी में मस्त हो जाता है ।
14. यशोधर चरित्र -- राजा यशोधर का जीवन जैन समाज में बहुत प्रिय रहा है। इसलिये इस पर विभिन्न भाषाओं में कितनी ही कृतियां मिलती हैं । सकलकीति की यह कृति संस्कृत भाषा की सुन्दर रचना है । इसमें आठ सर्ग हैं। इसे हम एक प्रबंध काव्य कह सकते हैं ।
15. सद्भाषितावलि -- यह एक छोटा सा सुभाषित ग्रन्थ है जिसमें धर्म, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, इन्द्रियविषय स्त्री सहवास, कामसेवन, निर्ग्रन्थ सेवा, तप, त्याग, राग, द्वेष, लोभ आदि विषयों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है ।
16. श्रीपाल चरित्र - यह सकलकीर्ति का एक काव्य ग्रन्थ है जिसमें 7 परिच्छेद हैं | कोटीभट श्रीपाल का जीवन अनेक विशेषताओं से भरा पडा है । राजा से कुष्टी होना, समुद्र में गिरना, सूली पर चढना आदि कितनी हो घटनायें उसके जोवन में एक के बाद दूसरी आती है जिससे उसका सारा जीवन नाटकीय बन जाता है । सफलकीर्ति ने इसे बडा सुन्दर रीति से प्रतिपादित किया है। इस चरित्र की रचना कर्मफल सिद्धांत को पुरुषार्थ से अधिक विश्वसनीय सिद्ध करने के लिये की गई है। मानव हो क्या विश्व के सभी जीवधारियों का सारा व्यवहार उसके द्वारा उपार्जित पाप-पुण्य पर आधारित है। उसके सामने पुरुषार्थ कुछ भी नहीं कर सकता । काव्य पठनीय है ।
17. शान्तिनाथ चरित्र - - शान्तिनाथ 16 वें तीर्थंकर थे । तीर्थ कर के साथ-साथ वे कामदेव एवं चक्रवर्ती भी थे । उनके जीवन की विशेषतायें बतलाने के लिये इस काव्य की रचना की गई है। काव्य में 16 अधिकार हैं तथा 3475 श्लोक संख्या प्रमाण हैं । इस काव्य को महाकाव्य की संज्ञा मिल सकती है । भाषा अलंकारिक एवं वर्णन प्रभावमय है । प्रारम्भ में कवि ने श्रंगार रस से ओत-प्रोत काव्य की रचना क्यों नहीं करनी चाहिये इस पर अच्छा प्रकाश डाला है । काव्य सुन्दर एवं पठनीय है ।