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जैन-संस्कृत महाकाव्य : 5
-डा. सत्यव्रत
भारतीय संस्कृति के विभिन्न अंगों की भांति साहित्य के उन्नयन तथा विकास में सी राजस्थान ने मुल्यवान् योग दिया है 1 । जैन-बहुल प्रदेश होने के नाते संस्कृत-महाकाव्य की समृद्धि में जैन कवियों ने श्लाध्य प्रयत्न किया है। यह सुखद आश्चर्य है कि जैन साधुओं
दीक्षित जीवन तथा निश्चित दष्टिकोण की परिधि में बद्ध होते हए भी, साहित्य के यापक क्षेत्र में झांकने का साहस किया है, जिसके फलस्वरूप वे न केवल साहित्य की विभिन्न वेधाओं की अपितु विभिन्न विधाओं की नाना शैलियों की रचनाओं से भारती के कोष को समद्ध बनाने में सफल हए हैं। राजस्थान के जैन कवियों ने शास्त्रीय, ऐतिहासिक, पौराणिक, वरितात्मक तथा चित्र-काव्य शली के संस्कृत-महाकाव्यों की रचना करके संस्कृत काव्यपरम्परा पर अमिट छाप अंकित कर दी है।
शास्त्रीय-महाकाव्यः--वाग्भट का नेमिनिर्वाण (बारहवीं शताब्दी) राजस्थान में रचित शास्त्रीय शैली का कदाचित् प्राचीनतम जैन संस्कृत-महाकाव्य है। काव्य में यद्यपि इसके रचनाकाल अथवा रचना-स्थल का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु जैन सिद्धान्त भवन, पारा तथा पं. दौर्बलि जिनदास शास्त्री की हस्तप्रति के अतिरिक्त प्रशस्ति-श्लोक के अनसार मिनिर्वाण का निर्माता अहिछत्रपूर का वासी था, जो म. म. ओझा जी के विचार में नागौर का प्राचीन नाम है ।
__नेमि प्रभु के चरित के आधार पर जैन संस्कृत-साहित्य में दो महाकाव्यों की रचना हुई है। वाग्भट के प्रस्तुत काव्य के अतिरिक्त कीर्तिराज आध्याय का नेमिनाथ महाकाव्य इस विषय की अन्य महत्वपूर्ण कृति है । नेमिनिर्वाण की भांति नेमिनाथ महाकाव्य (पन्द्रहवीं शताब्दी) में भी प्रशस्ति का अभाव है, किन्तु कवि की गरु परम्परा, विहार क्षेत्र आदि के आधार पर इसे राजस्थान रचित मानना सर्वथा न्यायोचित है। कीर्तिराज को उपाध्याय तथा प्राचार्य पद पर क्रमशः महेवा तथा जैसलमरे में प्रतिष्ठित किया गया था। कवि के जीवन-काल सम्बत् 1505, में लिखित काव्य की प्रति की बीकानेर में प्राप्ति भी कीतिराज के राजस्थानी होने की ओर संकेत करती है।
दोनों काव्यों में तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन-वृत्त की प्रमुख घटनाएं समान हैं, किन्तु उनके प्रस्तुतीकरण में बहुत अन्तर है । वाग्भट ने कथानक के स्वरूप मौर पल्लवन में बहुधा जिनसेन प्रथम के हरिवंश पुराण का मनुगमन किया है। दोनों में स्वप्नों की संख्या तथा क्रम समान है। देवताओं का आगमन, जन्माभिषेक, नेमि प्रभु की पूर्व-भवावली, तपश्चर्या,
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1. भारतीय संस्कृति एवं साहित्य में राजस्थान के योगदान के लिए देखिये ।
K. C. Jain : Jainism in Rajasthan, Sholapur, 1963. 2. नेमिचन्द्र शास्त्री: संस्कृत काव्य के विकास में जन कवियों का योगदाना
पृष्ठ 282.