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के पूर्वभव का वर्णन मुख्य कथा में व्याघात पहुंचाते है । पौराणिकता के कारण कथा-प्रवाह में कहीं-कहीं शिथिलता अवश्य आ गपी है पर क्रम कहीं भी छिन्त नहीं होता। नव, दसवें और चौदहवेसर्गों सगों में पात्रों के संवाद नाटकीयता से तरलित हैं ।।
जैन साहित्य में ऐसी रचनाओं की तो कमी नहीं, जिनमें पूर्वोक्त काव्यों की भांति महाकाव्य की पौराणिक तथा शास्त्रीय शैलियों के तत्व परस्पर अनुस्यूत हैं, पर अंचलगच्छीय आचार्य माणिक्यसुन्दर के श्रीधरचरित में शास्त्र काव्य की विशेषताओं का भी गठबन्धन दिखाई देता है । इसकनी माणिक्यांक सों में मंगलपूर नरश जयचन्द्र के पुत्र विजयचन्द्र क वृत्त निबद्ध है। विजयचन्द्र पूर्व जन्म का श्रीधर है । काव्य का शीर्षक उसके भवान्तर क इसी नाम पर आधारित है। इस दृष्टि से प्रस्तुत शीर्षक काव्य पर पूर्णतया चरितार्थ नहीं होता। चरित-वर्णन के साथ-साथ कवि का उददेश्य अपनी छन्द-मर्मज्ञता तथा उन्हें यथेष्ट रूप से उदाहृत करने की क्षमता का प्रदर्शन करना है। इसीलिए काव्य में 92 वणिक तथा मात्रिक वत तथा उनके ऐसे भेदों प्रभेदों और कतिपय अज्ञात अथवा अल्पज्ञात छन्दों का प्रयोग हुआ है, जो साहित्य में अन्यत्र शायद ही प्रयक्त हुए हों । छन्दों के प्रायोगिक उदाहरण प्रस्तुत करने के कारण श्रीधरचरित छन्दों के बोध के लिए लक्षण-ग्रन्थों की अपेक्षा कहीं अधिक उपयोगी है। किन्तु कवि का यह लक्ष्य, शास्त्र अथवा नानार्थक काव्यों की भांति, काव्य के लिए घातक नहीं है क्योंकि उसकी प्रतिभा छन्दों की धारा में बन्दी नहीं है। वैसे भी अज्ञात छन्द व्याकरण के दुस्साध्य प्रयोगों के समान रस-चर्वणा में बाधक नहीं हैं ।
श्रीधरचरित का कथानक बहुत संक्षिप्त है, किन्तु कवि ने उसे महाकाव्योचित परिवेश देने के लिए प्रभात, गयोदय, पर्वत, नगर, दूतप्रेषण, स्वयंबर आदि के वर्णनों से मांस ल बनाकर प्रस्तुत किया है। फलतः श्रीधरचरित का कथानक वस्तु व्यापार के वर्णनों के सेतुओं से टकराता हआ आगे बढ़ता है। काव्य के उत्तरार्ध में तो कवि की वर्णनात्मक प्रवृत्ति ने विकराल रूप धारण कर लिया है । आठव तथा नवें सर्ग का संसार यक्षों, गन्धर्वो, सिद्धों, नागकन्याओं, यद्धों, नरमेध, स्त्री-हरण तथा चमत्कारों का अजीब संसार है । इनमें अति प्राकृतिक तत्वों, अबाध वर्णनों तथा विषयान्तरों का इतना बाहल्य है कि ये सर्ग, विशेषतः अष्टम सर्ग काव्य की अपेक्षा रोमांचक कथा बन गये हैं । काव्य की जो कथा सातवें सर्ग तक लंगडाती चली आ रही थी, वह आठवें सग म आकर एकदम ढेर हो जाती है। वस्तुतः श्रीधर चरित को पौराणिक काव्य बनाने का दायित्व इन दो सग पर ही है ।
प्रान्त प्रशस्ति के अनुसार श्रीधरचरित की रचना सम्वत् 1463 (1406 ई.) में मेवाड़ के देवकुलपाटक (देलवाड़ा ?) नगर में सम्पन्न हुई थी।
श्रीमेदपाटदेशे ग्रन्थो माणिक्यसुन्दरेणायम् ।। देवकुलपाटकपुरे गुणरसवाधीन्दुवर्षे व्यरचि ॥ प्रशस्ति, 2.
अठारहवीं शताब्दी में प्रदेश को एक महाकाव्य प्रदान करने का श्रेय जोधपुर को है । जैसा ग्रन्थ प्रशस्ति में सचित किया गया है, रूपचन्द्र गणि अपरनाम रामविजय ने गौतमीय काव्य का निर्माण जोधपुर नरेश रामसिंह के शासनकाल में, सम्वत 1807 (सन 1650) में किया2 । रूपचन्द्र के शिष्य क्षमाकल्याण ने इस पर सं. 1852 (सन् 1695) में टीका लिखी जिसका प्रारम्भ तो राजनगर (अहमदाबाद) में किया था, किन्तु पति जैसलमर में हई ।
1. श्यामशंकर दीक्षित : तेरहवीं चौदहवीं शताब्दि के जैन सस्कृत महाकाव्य, पृ. 282. 2. ग्रंथकार-प्रशस्ति, 1-3. 3. टीकाकार-प्रशस्ति, 1-3.