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ह। पुष्पदन्त ने समग्र चरितों के संकलन को महापुराण कहा है, परन्तु पथक-पृथक रूप में वह चरित काव्य कहने के पक्ष में है। वह लिखते हैं:--
घम्माणसासणाणंद भरिउ, पुण कहमि विरह णाभय चरिउ। म. पु. 1/2 में फिर. धर्म के अनुशासन और आनन्द से भरे पवित्र नाभेय चरित्र का वर्णन करता है। इस प्रकार उनके महापुराण में कई चरित-काव्य हैं। इसमें संदेह नहीं कि अपभ्रश चरित-काव्य विषय-वस्तु और वर्णन में बहुत कुछ संस्कृत जैन पुराणों पर आधारित है, परन्तु वस्तुनियोजन और वर्णन में अन्तर है। संस्कृत पुराण काव्यों की तुलना में इनमें संक्षेप है और कथा-निर्वाह में अपेक्षाकृत कार्यकारण सम्बन्ध है। पौराणिक वस्तु-निर्देश कम है तथा विविध छंदों वाली सर्गबद्ध शैली के स्थान पर, कडवक शैली है। एक संधि में कई कडवक रहते हैं, प्रत्येक कडवक के अन्त में धत्ता के रूप में कोई छंद रहता है, कडवक में कई तुकांत दो पंक्तियां रहती हैं। यह शैली प्राकृत काव्यों में भी नहीं है । विषय और प्रसंग के अनरोध से कडवक की पक्तियों में संकोच विस्तार संभव है। हमारा अनुमान है कि लोकगीत शैली के आधार पर ही कडवक शैली का विकास हुआ। पुष्पदन्त जैसे कवियों ने संस्कृत के वणिक वृत्तों का प्रयोग कडवक शैली के अन्तर्गत किया है। जायसी के पद्मावत और तुलसी के मानस के दोहा-चौपाई शैली, इसी का परवर्ती विकास है।
चरित काव्य के दो भेद
अपभ्रश में दो प्रकार के चरित-काव्य हैं, एक पुराणों के प्रभाव से ग्रस्त जैसे पउमरिस और नामेयचरिउ। दूसरे हैं, रोमांचक अथवा कल्पना प्रधान जैसे णायकुमार चरिउ, करकंडचरिउ, जसहर चरिउ। धर्म से अनुशासित होने पर भी इनमें रोमांस, कल्पना-प्रवणता और प्रेम तथा युद्ध की उत्तेजक स्थितियां होती हैं। विशेष उल्लेखनीय यह है कि अपभ्रश में लौकिक-पुरुष पर एक भी चरित-काव्य नहीं लिखा गया। अपभ्रश कवि कथा-काव्य और चरित-काव्य में भेद नहीं करते। भेद है भी नहीं। भविसयत्त कहा और भविसयत्त चरिउ एक ही बात है। प्राकृत में अवश्य कथा-काव्य कहने का प्रचलन था। इधर हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्यों पर अपभ्रश चरित-काव्यों का प्रभाव सिद्ध करने के लिए, अपभ्रश के एक नए खोजी ने उसमें भी प्रेमाख्यानक काव्य खोज निकाले हैं। उसके अनुसार धाहिल का पउमसिरि चरिउ प्रेमाख्यानक काव्य है, (अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोधप्रवृत्तियां पृ.सं. 36) जो सचमुच चिन्तनीय है। प्रेमकाव्य और प्रेमाख्यानक काव्य में जमीन आसमान का अन्तर है। प्रेम काव्यों में प्रेम की मुख्यता होतीहै, जबकि प्रेमाख्यानक-काव्य मलौकिक प्रेम वाली कथा के माध्यम से अलौकिक प्रेम अर्थात् ईश्वरीय प्रेम का साक्षात्कार किया जाता है। पउमसिरि चरिउ कवि धाहिल के अनसार, धर्माख्यान है जिसक उद्देश्य यह बताना है कि धर्म के लिए भी किया गया कपटाचरण दुःखदायी होता है। यह मोचना भी भ्रांतिपूर्ण है, कि अपभ्रश चरित-काव्यों के नायक लोक सामान्य जीवन से आए हैं, वे सब अभिजात्य वर्ग के हैं। संस्कृत जैन पुराण-काव्य में जो पात्र अभिजात्यवर्ग के हैं, वे अपभ्रश में सामान्यवर्ग के कैसे हो गए। वस्तुतः वे पुण्यसिद्ध सामन्तवर्ग के हैं। अपभ्रश चरित-काव्य वस्तुतः धवल मंगल गान से युक्त है। आध्यात्मिक गुणों से सम्बन्धित गीत मंगल-गीत है और लौकिक गुणों से सम्बन्धित गीत धवल-गीत हैं। अपभ्रश कथा-काव्य के नायक दोनों प्रकार के गुणों से अलंकृत है। आध्यात्मिक गुणों से शून्य होने पर, इन्हें प्राकृत जन कहा जाएगा, जिनका गान करने पर तुलसीदास की सरस्वती माथा पीटने लगती है। हिन्दी का रासो-काव्य वस्तुतः प्राकृत जन गुणगान ही है। चरित काव्यों के अतिरिक्त रासो-काव्य, संधिकाव्य, रूपक आदि छोटी-छोटी रचनाएं भी अपभ्रश में मिलती हैं जो वस्तुतः चरित-काव्यों के विघटन से अस्तित्व में आई। एक तो ये रचनाएँ परवर्ती है और दूसरे काव्यात्मक दृष्टि से इनका विशेष महत्व नहीं है। खंडकाव्य के रूप में रहमान का संदेश-रासक उपलब्ध है, जो सुखांत विप्रलंभ श्रृंगार का प्रतिक्रियात्मक-काव्य है। इसमें विक्रमपुर की एक वियोगिनी, अपने प्रवासी पति के लिए प्रेम संदेश भेजती है। जैसे ही पथिक प्रस्थान करता है कि उसका पति आ जाता है। यह विशुद्ध पाठ्यकाव्य